वायुमंडलीय दाब
पृथ्वी की सतह के एकांक क्षेत्रफल पर उसके उपर
के वायु स्तम्भ के भार द्वारा डाला गया दाब वायुदाब या वायुमंडलीय दाब कहलाता हैं।
वायुमंडलीय दाब को पारद वायुदाबमापी अथवा निर्द्रव वायुदाब मापी (बेरोमीटर) से
मापा जाता है। वायुदाब के मापने की इकाई को मिलीबार कहते हैं। है। समुद्र तल पर
औसत वायुमंडलीय दाब 1013.25 मिलीबार के
बराबर होता है। एक निश्चित स्थान एवं निश्चित समय पर वायु के एक स्तम्भ का भार
वायुदाब कहलाता है।
वायुदाब का उर्ध्वाधर वितरण
वायुदाब, ऊँचाई बढ़ने के साथ-साथ कम होता जाता है लेकिन यह एक ही दर से हमेशा कम नहीं
होता है। यह ह्रास दर प्रत्येक 10 मीटर की ऊँचाई पर 1 मिलीबार होता
है। वायुदाब सदैव एक ही दर से नहीं घटता। निश्चित ऊँचाई पर उर्ध्वाधर दाब प्रवणता
क्षैतिज दाब प्रवणता की अपेक्षा अधिक होती है। लेकिन, इसके विपरीत दिशा में कार्यरत गुरुत्वाकर्षण बल
से यह संतुलित हो जाती है अतः अतः उर्ध्वाधर पवनें अधिक शक्तिशाली नहीं होती।
वायुदाब का क्षैतिज वितरण
वायुमंडलीय दाब का सारे संसार में वितरण क्षैतिज वितरण कहलाता है। इसे मानचित्र में समदाब रेखाओं द्वारा दर्शाया जाता है। समदाब रेखाएँ वे रेखाएँ हैं जो समुद्र तल से एक समान वायुदाब वाले स्थानों को मिलाती हैं। समदाब रेखायें जब पास-पास होती हैं तो वायुदाब प्रवणता तीव्र होती हैं और जब वे दूर-दूर होती है तो वायुदाब प्रवणता की मंद होती हैं। समदाब रेखाओं के बीच की दूरी वायुदाब में आने वाले परिवर्तन की दर तथा उसकी दिशा को बताती है। वायुदाब की दर में इस परिवर्तन को वायुदाब की प्रवणता कहते हैं। वायुदाब की प्रवणता दो स्थानों के वायुदाब में भिन्नता तथा उनके बीच क्षैतिज दूरी का अनुपात होता है। निम्न दाब प्रणाली एक या अधिक समदाब रेखाओं से घिरी होती है जिसके केंद्र में निम्न वायुदाब होता है। उच्च दाब प्रणाली में भी एक या अधिक समदाब रेखाएँ होती हैं जिनकें केन्द्र्र में उच्चतम वायुदाब होता है।
समुद्रतल वायुदाब का विश्व-वितरण
ये वायुदाब पट्टिðयाँ स्थाई नही हैं। सूर्य किरणों के विस्थापन
के साथ ये पट्टिðयाँ वस्थापित
होती रहती हैं। उत्तरी गोलार्ध में शीत ऋतु में ये पट्टिðयाँ दक्षिण की ओर तथा ग्रीष्म ऋतु ये उत्तर
दिशा की ओर खिसक जाती हैं।
वायुदाब की पेटियाँ
धरातल पर वायुदाब का क्षैतिज वितरण मुख्य
अक्षांश वृत्तों के साथ पट्टियों के रूप में पाया जाता है। इन्हीं को वायुदाब
पेटियाँ कहा जाता है।
संसार में पाई जाने वाली वायुदाब की आदर्श चार
पेटियाँ हैं
1. विषुवतीय निम्न वायुदाब पेटी: विषुवत वृत्त पर
सूर्य की किरणें लगभग वर्षभर लम्बवत् पड़ती हैं। इस कारण विषुवतीय क्षेत्रों में
वायु गर्म होकर ऊपर उठ जाती है, जिससे यहां निम्न वायुदाब का क्षेत्र बन जाता है। इस वायुदाब की पेटी का
विस्तार 10 उत्तरी और 10 दक्षिणी अक्षांश के बीच है।
2. उपोष्ण उच्चदाब पेटी: उपोष्ण उच्च दाब पेटी का
विस्तार दोनों गोलार्धों 23 से 35 अक्षाशों तक है। विषुवतीय क्षेत्रों से उपर उठी
गर्म वायु पृथ्वी के घूर्णन से ध्रुवों की ओर बढ़ने लगती है। उपोष्ण क्षेत्र में
आकर वह ठंडी और भारी हो जाती है, जिससे वह नीचे उतर कर इकट्ठी हो जाती है। परिणाम स्वरूप यहाँ उच्च वायुदाब
क्षेत्र बन जाता है।
3. उपध्रुवीय निम्न वायुदाब पेटी: उपध्रुवीय निम्न
वायुदाब पेटी का उत्तरी गोलार्ध्द में विस्तार 45 उत्तर अक्षांश से आर्कटिक वृत्त तक है और
दक्षिणी गोलार्ध में 45 दक्षिण
अक्षांश से एन्टार्कटिक वृत्त तक है। इन पेटियों में धु्रवों और उपोष्ण उच्च दाब
क्षेत्रों में पवनें आकर मिलती हैं और ऊपर उठती हैं। इन आने वाली पवनों के तापमान
और आर्द्रता में बहुत अन्तर होता है। इस कारण यहाँ चक्रवात या निम्न वायुदाब की
दशायें बनती हैं।
4. ध्रुवीय उच्च वायुदाब पेटी : धु्रवीय क्षेत्रों में सूर्य की किरणे तिरछी पङती है इस कारण यहां सबसे कम तापमान पाये जाते हैं। निम्न तापमान होने के कारण वायु सिकुड़ती है और उसका घनत्व बढ़ जाता है, जिससे यहां उच्च वायुदाब का क्षेत्रा बनता है। इन पेटियों से पवनें उपध्रुवीय निम्न वायुदाब पेटियों की ओर चलती हैं
वास्तव में वायुदाब पेटियों की यह स्थिति
स्थायी नहीं है। ये पेटियाँ जुलाई में उत्तर की ओर, और जनवरी में दक्षिण की ओर खिसकती रहती हैं।
पवन
वायुमंडलीय दाब में भिन्नता के कारण वायु उच्च
वायुदाब के क्षेत्र से निम्न वायुदाब के क्षेत्र की ओर चलती है। वायुदाब के अन्तर
के कारण क्षैतिज रूप में चलने वाली वायु को पवन कहते हैं। जब वायु ऊर्ध्वाधर रूप
में गतिमान होती है
पवनों की दिशा व वेग को प्रभावित करने वाले बल
पृथ्वी के धरातल पर क्षैतिज पवनें तीन संयुक्त
प्रभावों का परिणाम है: वायुदाब प्रवणता, घर्षण बल, तथा कोरिआलिस
बल।
वायुदाब-प्रवणता
किन्हीं दो स्थानों के बीच वायुदाब के अन्तर को दाब प्रवणता कहते हैं। यह प्रवणता क्षैतिज दिशा में होती है। किन्हीं दो स्थानों के बीच दाब प्रवणता अधिक होने पर पवनों की गति अधिक होती है, इसके विपरीत दाब प्रवणता कम होने पर पवनों की गति धीमी होती है।
घर्षण बल
धरातल की विषमताओं के कारण उत्पन्न यह बल पवन
की गति के विपरित काम करता है । तथा पवन की गति और दिशा को प्रभावित करता है
पृथ्वी तल से 500 मीटर तक की
ऊँचाई पर धरातलीय विषमताओं (पहाड़, पठार, मैदान, महासागर आदि) के कारण घर्षण अत्यधिक होता है और
पवन की गति काफी कम हो जाती है समुद्र सतह पर घर्षण न्यूनतम होता है।
कोरिऑलिस बल :-
पृथ्वी की घर्णून गति के कारण पवनें अपनी मूल दिशा से विक्षेपित हो जाती है इसे कोरिओलिस प्रभाव या कोरिओलिस बल कहा जाता है इस प्रभाव से पवनें उत्तरी गोलार्ध में अपनी मूल दिशा से दाहिने तरफ व दक्षिण गोलार्ध में बाईं तरफ विक्षेपित हो जाती हैं। इसे फैरल का नियम भी कहते हैं। विषुवत वृत्त पर कोरिओलिस बल नगण्य होता है, परन्तु ध्रुव की ओर जाने पर यह बढ़ता जाता है।
भूविक्षेपी पवन :-
पृथ्वी की सतह से 2-3 कि.मी की ऊँचाई पर उपरी वायुमंडल में पवनें
धरातलीय घर्षण के प्रभाव से मुक्त होती हैं जब समदाब रेखाएँ सीधी हों और घर्षण का
प्रभाव न हो, तो दाब
प्रवणता बल कोरिऑलिस बल से संतुलित हो जाता है और फलस्वरूप पवनें समदाब रेखाओं के
समानांतर चलती हैं। ये पवनें भूविक्षेपी पवने कहलाती हैं।
चक्रवाती परिसंचरण व प्रतिचक्रवाती परिसंचरण :-
निम्न दाब क्षेत्र के चारों तरफ पवनों का परिक्रमण चक्रवाती परिसंचरण कहलाता है। तथा उच्च वायु दाब क्षेत्र के चारों तरफ पवनों का परिक्रमण प्रतिचक्रवाती परिसंचरण कहलाता है।
वायुमंडल का सामान्य परिसंचरण
वायुमंडलीय पवनों के प्रवाह प्रारूप को वायुमंडल का सामान्य परिसंचरण कहते है। यह वायुमंडलीय परिसंचरण महासागरीय जल को भी गतिमान करता है, जो पृथ्वी की जलवायु को प्रभावित करता है। उच्च सूर्यातप व निम्न वायुदाब होने से अंतर-उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र में वायु संवहन धाराओं के रूप में उपर उठती है। उष्णकटिबंधों से आने वाली पवनें इस निम्न दाब क्षेत्र में अभिसरण करती हैं। अभिसरित वायु उपर उठती हैं। यह क्षोभमंडल के उपर 14 कि.मी. की ऊँचाई तक उपर चढ़ती है और फिर सहवनी धाराएं दो भागों में विभाजित होकर ध्रुवों की तरफ प्रवाहित होती हैं। उपोष्ण क्षेत्र में आकर यह वायु ठंडी और भारी हो जाती है, जिससे वह नीचे उतर कर इकट्ठी हो जाती है। परिणाम स्वरूप यहाँ उच्च वायुदाब क्षेत्र बन जाता है। यहां धरातल के निकट वायु का दो दिषाओं में अपसरण होता है एक भूमध्य रेखा की तरफ तथा दूसरा ध्रुवों की तरफ। भूमध्य रेखा की ओर जाने वाली हवा भूमध्य रेखीय निम्न वायुदाब क्षेत्र में उपर उठती हवा की क्षतिपूर्ती करती हैं। और धू्रवों की और जाने वाली धरातलीय हवा उपध्रुवीय निम्न वायुदाब पेटी में उपर उठती हवा की क्षतिपूर्ति करती है ध्रुवीय अक्षाँशों पर ठंडी सघन वायु का ध्रुवों पर अवतलन होता है और मध्य अक्षांशों की ओर ध्रुवीय पवनों के रूप में प्रवाहित होती हैं।
कोष्ठ
पृथ्वी की सतह से उपर की दिशा में होने वाले
परिसंचरण और इसके विपरीत दिशा में होने वाले परिसंचरण को कोष्ठ कहते हैं
उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में ऐसे कोष्ठ को हेडले
कोष्ठ या फैरल कोष्ठ तथा ध्रुवों पर इस कोष्ठ को ध्रुवीय कोष्ठ कहा जाता है।
स्थानीय पवनें
जो हवाएँ किसी स्थान विशेष के तापमान और
वायुदाब में अन्तर के कारण चलती हैं, उन्हें स्थानीय पवनें कहते हैं।
स्थल व समुद्र समीर
स्थल और जल भाग के अलग-अलग ठंडा और गर्म होने के कारण दिन में स्थल भाग समुद्र या झील की अपेक्षा अधिक गर्म हो जाता है। अतः स्थल भाग के ऊपर की वायु फैलती है और ऊपर उठती है। इस कारण स्थल भाग पर स्थानीय निम्न वायुदाब विकसित हो जाता है और इसके विपरीत समुद्र या झील की सतह पर उच्च वायुदाब होता है। वायुदाबों में अन्तर होने के कारण समुद्र से स्थल की ओर वायु चलती है। इसे समुद्र-समीर कहते हैं।
रात के समय स्थल भाग शीघ्र ठंडा हो जाता है इसके परिणामस्वरूप स्थल भाग पर उच्च वायुदाब का क्षेत्र बन जाता है और समुद्री-भाग पर अपेक्षाकृत निम्न वायुदाब, अतः पवनें स्थल-भाग से समुद्र की ओर चला करती है। ऐसी पवनों को स्थल-समीर कहते हैं
घाटी एवं पर्वतीय समीर:
दिन के समय पर्वतीय ढाल घाटीतल की अपेक्षा अधिक
गर्म हो जाते हैं। इससे ढालों पर वायु दाब कम और घाटी तल पर वायुदाब अधिक होता है।
अतः दिन के समय घाटी तल से वायु मन्द गति से पर्वतीय ढालों की ओर चला करती है। इसे
घाटी-समीर कहते हैं
रात्रि के समय पर्वतीय ढालों पर विकिरण द्वारा ताप ह्मास अधिक होता है। और पर्वतीय ढाल ठंडे हो जाते है इससे पर्वतीय ढालों पर उच्च दाब और घाटी-तल में निम्न दाब बन जाता है। ऐसी परिस्थिति में पर्वतीय ढालों की ऊँचाईयों से ठण्डी और भारी हवा नीचे घाटी की ओर उतरने लगती है। इसे पर्वत-समीर कहते हैं।
वायुराशियाँ
जब वायु बहुत बड़े और लगभग एक समान स्थलीय भाग
या महासागरीय तल पर बहुत लम्बे समय तक स्थिर रहती है, तो यह उस क्षेत्र के गुणों को धारण कर लेती है। तापमान तथा आर्द्रता संबंधी विशिष्ट गुणों वाली
यह वायु, वायुराशि
कहलाती है।
अर्थात वायु का वृहत् भाग जिसमें तापमान व
आर्द्रता संबंधी क्षैतिज भिन्नताएँ बहुत कम पाई जाती हैं। वायुराशि कहलाती है।
वायु-राशियों के प्रमुख स्रोत समान दशाओं वाले उच्च अक्षांशों के ध्रुवीय प्रदेश या निम्न अक्षांशों के उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्र होते हैं। अतः वायु-राशियाँ दो प्रकार की होती
हैं- ध्रुवीय वायु-राशि और उष्ण कटिबंधीय
वायु-राशि।
वह समांग धरातल जिन पर वायुराशियाँ बनती हैं
उन्हें वायुराशियों का उद्गम क्षेत्र कहा जाता है। वायुराशियों को उनके उद्गम
क्षेत्र के आधार पर वर्गीवृफत किया जाता है। इनके प्रमुख पाँच उद्गम क्षेत्र हैं। जो इस प्रकार हैं:
1. उष्णकटिबंधीय महासागरीय क्षेत्र
2. उष्ण कटिबंधीय महाद्वीपीय क्षेत्र
3. ध्रुवीय महासागीय क्षेत्र
4. ध्रुवीय महाद्वीपीय क्षेत्र
5. महाद्वीपीय आर्कटिक क्षेत्र
इसी के आधार पर निम्न प्रकार की वायुराशियाँ
पायी जाती हैं-
1. उष्णकटिबंधीय महासागरीय वायुराशियां
2. उष्ण कटिबंधीय महाद्वीपीय वायुराशियां
3. ध्रुवीय महासागीय वायुराशियां
4. ध्रुवीय महाद्वीपीय वायुराशियां
5. महाद्वीपीय आर्कटिक वायुराशियां
वाताग्र :
जब दो विपरीत स्वभाव वाली वायु (ठण्डी व गर्म)
आकार मिलती है तो वे तापमान एवं आर्द्रता संबंधी अपनी पहचान बनाये रखने की लगातार
कोशिश करती है। इस प्रक्रिया में इनके बीच में एक ढलुआ सीमा का विकास हो जाता है।
इसे वाताग्र कहते हैं।
वाताग्रों के बनने की प्रक्रिया को वाताग्र-जनन
कहते हैं। वाताग्र चार प्रकार के होते हैं
शीत वाताग्र- ठंडी वायु-राशि द्वारा गर्म
वायु-राशि को ऊपर उठा देने पर जो वाताग्र बनता है वह शीत वाताग्र कहलाता है।
उष्ण वाताग्र- जब गर्म वायु-राशि ठंडी वायु-राशि
के ऊपर चढ़ती है तो इससे बने वाताग्र
को उष्ण वाताग्र कहते हैं।
अचर वाताग्र - दो विपरीत वायुराशियों के
समानान्तर रूप में अलग होने एवं वायु की लम्बवत् गति के अभाव में बने वाताग्र को
स्थायी वाताग्र कहते हैं।
अधिविष्ट वाताग्र शीत वाताग्र के गर्म वाताग्र
से मिलने एवं गर्म वायु का नीचे धरातल से सम्पर्क खत्म होने से उत्पन्न होने वाला
वाताग्र अधिविष्ट वाताग्र कहलाता है।
चक्रवात: -
चक्रवात निम्न वायुदाब के केन्द्र होते है जिसके चारों ओर बाहर की ओर वायुदाब क्रमशः बढ़ता जाता है, जिससे सभी दिशाओं से हवाएँ अन्दर केन्द्र की तरफ प्रवाहित होने लगती है। उत्तरी गोलार्ध में चक्रवात के भीतर पवनें घड़ी की सुइयों के घूमने की वपरीत दिशा में चलती हैं और दक्षिणी गोलार्ध में घड़ी की सुइयों के हैं
शीतोष्ण कटिबंधीय /बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवात
वे चक्रवातीय वायु प्रणालियाँ, जो उष्ण कटिबंध से दूर, मध्य व उच्च अक्षांशों में विकसित होती हैं, उन्हें बहिरूष्ण या शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात कहते हैं। मध्य तथा उच्च अक्षांशों में जिस क्षेत्र से ये गुजरते हैं, वहाँ मौसम संबंधी अवस्थाओं में अचानक तेजी से बदलाव आते हैं। ये चक्रवात पश्चिम से पूर्व दिशा में चलते हैं। शीतोष्ण कटिबन्धीय चक्रवातों का विस्तार बहुत अधिक होता है। बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवात ध्रुवीय वाताग्र के साथ-साथ बनते हैं। आरम्भ में वाताग्र अचर होता है। उत्तरी गोलार्ध में वाताग्र के दक्षिण में कोष्ण व उत्तर दिशा से ठंडी हवा प्रवाहित होती है। जब वाताग्र के साथ वायुदाब कम हो जाता है, कोष्ण वायु उत्तर दिशा की ओर तथा ठंडी वायु दक्षिण दिशा में घड़ी की सुइयों के विपरीत चक्रवातीय परिसंचरण करती है। इस चक्रवातीय प्रवाह से बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवात विकसित होता है जिसमें एक उष्णवाताग्र तथा एक शीत वाताग्र होता है। कोष्ण वायु आक्रामक रूप में ठंडी वायु के उपर चढ़ती है पीछे से आता शीत वाताग्र उष्ण वायु को उपर धकेलता है शीत वाताग्र उष्ण वाताग्र की अपेक्षा तीव्रगति से चलते हैं और अंततः उष्ण वाताग्रों को पूरी तरह ढक लेते हैं। यह कोष्ण वायु उपर उठती हैं और इस का भूतल से कोई संपर्वफ नहीं रहता तथा अधिविष्ट वाताग्र बनता है एवं चक्रवात धीरे-धीरे क्षीण हो जाता है
उष्ण कटिबंधीय चक्रवात
उष्ण कटिबंधीय चक्रवात आक्रामक तूफान हैं जिनकी उत्पत्ति उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों के महासागरों पर होती है और ये तटीय क्षेत्रों की तरफ गतिमान होते हैं। ये चक्रवात आक्रामक पवनों के कारण विस्तृत विनाश, अत्यधिक वर्षा और तूफान लाते हैं। ये चक्रवात विध्वंसक प्राकृतिक आपदाओं में से एक हैं। हिंद महासागर में ये ‘चक्रवात’ अटलांटिक महासागर में ‘हरीकेन’ के नाम से, पश्चिम प्रशांत और दक्षिण चीन सागर में ‘टाइफून’ और पश्चिमी आस्ट्रेलिया में ‘विली-विलीज’ के नाम से जाने जाते हैं।उष्ण कटिबंधीय चक्रवात, उष्ण कटिबंधीय महासागरों में उत्पन्न व विकसित होते हैं। इनकी उत्पत्ति व विकास के लिए बृहत् समुद्री सतह, कोरिऑलिस बल का होना, उर्ध्वाधर पवनों की गति में अंतर कम होना तथा कमजोर निम्न वायु दाब क्षेत्र का होना अनुकुल स्थितियाँ हैं समुद्रों से लगातार आर्द्रता की आपूर्ति से ये तूफान अधिक प्रबल होते हैं। स्थल पर पहुँचकर आर्द्रता की आपूर्ति रुक जाती है और ये क्षीण होकर समाप्त हो जाते हैं। वह स्थान जहाँ से उष्ण कटिबंधीय चक्रवात तट को पार करके जमीन पर पहुँचते हैं चक्रवात का लैंडफाल कहलाता है। वे चक्रवात जो प्रायः 20°उत्तरी अक्षांश से गुजरते हैं, उनकी दिशा अनिश्चित होती है और ये अधिक विध्वंसक होते हैं। एक विकसित उष्ण कटिबंधीय चक्रवात की विशेषता इसके केंद्र के चारो तरफ प्रबल सर्पिल पवनों का परिसंचरण है, जिसे इसकी आँख कहा जाता है। ये चक्रवात तूफान तरंग उत्पन्न करते हैं और तटीय निम्न इलाकों को जल प्लावित कर देते हैं। ये तूपफान स्थल पर धीरे-धीरे क्षीण होकर खत्म हो जाते हैं।
बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवात व उष्णकटिबंधीय
चक्रवातों में अन्तर
1. बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवातों में स्पष्ट
वाताग्र प्रणालियाँ होती हैं, जबकि उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों में स्पष्ट वाताग्र प्रणालियाँ नहीं होती है
2. बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवात विस्तृत क्षेत्र को
प्रभावित करते हैं जबकि उष्ण
कटिबंधीय चक्रवात कम क्षेत्र को प्रभावित करते है
3. बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवात की उत्पत्ति जल व
स्थल दोनों पर होती है, जबकि उष्ण
कटिबंधीय चक्रवात केवल समुद्रों में उत्पन्न होते हैं और स्थलीयभागों में पहुँचने
पर नष्ट हो जाते हैं।
4. बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवात पश्चिमसे पूर्व दिशा
में चलते हैं। जबकि उष्ण कटिबंधीय चक्रवात पूर्व से पश्चिम में चलते हैं
तड़ित झंझा व टोरनेडो
तड़ितझंझा उष्ण आर्द्र दिनों में प्रबल संवहन के कारण उत्पन्न होते हैं। ये अल्प समय के लिए रहते हैं, अपेक्षाकृत कम क्षेत्रफल तक सीमित होते हैं, परंतु आक्रामक होते हैं। तड़ितझंझा एक पूर्ण विकसित कपासी मेघ है जो गरज व बिजली उत्पन्न करते हैं। उष्ण आर्द्र दिनों में अधिक तापमान के कारण उष्ण वायु प्रबलता के साथ उपर उठती है इस वायु में उपस्थित जलवाष्प के कारण बादलों का आकार बढ़ता है और ये बादल अधिक उँचाई तक चले जाते हैं अधिक उंचाई पर तापमान कम होने के कारण ओले बनने लगते हैं और ओलावृष्टि होती है। आर्द्रता कम होने पर ये तड़ितझंझा धूल भरी आंधियाँ लाते हैं।
भयानक तड़ितझंझा से कभी-कभी वायु आक्रामक रूप
में हाथी की सूंड की तरह सर्पिल अवरोहण करती है। इसमें केंद्र पर अत्यंत कम
वायुदाब होता है और यह व्यापक रूप से भयंकर विनाशकारी होती हैं। इस परिघटना को
‘टोरनेडो’ कहते हैं। टोरनेडो सामान्यतः मध्य अक्षांशों में उत्पन्न होते हैं।
समुद्र पर टोरनेडो को जलस्तंभ कहते हैं।
- यदि धरातल पर वायुदाब 1,000 मिलिबार तो धरातल से 1 कि.मी. की ऊँचाई पर वायुदाब कितना होगा?(क) 700 मिलीबार (ख) 900 मिलीबार(ग) 1,100 मिलीबार (घ) 1,300 मिलीबार (ख)
- अंतर उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र प्रायः कहाँ होता है?(क) विषुवत् वृत्त के निकट (ख) कर्क रेखा के निकट(ग) मकर रेखा के निकट (घ) आर्कटिक वृत्त के निकट (क)
- उत्तरी गोलार्ध में निम्नवायुदाब के चारों तरफ पवनों की दिशा क्या होगी?(क) घड़ी की सुइयों के चलने की दिशा के अनुरूप(ख) घड़ी की सुइयों के चलने की दिशा के विपरीत(ग) समदाब रेखाओं के समकोण पर(घ) समदाब रेखाओं के समानांतर (ख)
- वायुराशियों के निर्माण के उद्गम क्षेत्र निम्नलिखित में से कौन-सा है(क) विषुवतीय वन (ख) साइबेरिया का मैदानी भाग(ग) हिमालय पर्वत (घ) दक्कन पठार (ख)
- वायुदाब मापने की इकाई क्या है? मौसम मानचित्र बनाते समय किसी स्थान के वायुदाब को समुद्र तल तक क्यों घटाया जाता है?वायुदाब को मापने की इकाई मिलीबार है| दाब पर ऊँचाई के प्रभाव को दूर करने तथा तुलनात्मक बनाने के लिए, मौसम मानचित्र बनाते समय किसी स्थान के वायुदाब को समुद्र तल तक घटाया जाता है |
- जब दाब प्रवणता बल उत्तर से दक्षिण दिशा की तरफ हो अर्थात् उपोष्ण उच्च दाब से विषुवत वृत्त की ओर हो तो उत्तरी गोलार्ध में उष्णकटिबंधीय में पवनें उत्तरी पूर्वी क्यों होती हैं?पृथ्वी के अपने अक्ष पर घूर्णन के कारण पवनें दाब प्रवणता की दिशा में नहीं बहकर अपनी मूल दिशा से विक्षेपित हो जाती है पृथ्वी के घूर्णन के द्वारा लगने वाला यह बल कोरिऑलिस बल कहलाता है। इसके द्वारा पवनें उत्तरी गोलार्ध में अपनी मूल दिशा से दाहिने तरफ (उत्तरी पूर्वी) व दक्षिणी गोलार्ध में अपने बाई तरफ (दक्षिणी पूर्वी) विक्षेपित हो जाती हैं। कोरिऑलिस प्रभाव दाब प्रवणता के समकोण पर कार्य करता है। दाब प्रवणता बल समदाब रेखाओं के समकोण पर होता है। दाब प्रवणता जितनी अधिक होगी, पवनों का वेग उतना ही ज़्यादा होगा और पवनों की दिशा उतनी ही ज़्यादा विक्षेपित होगी। इसलिए जब दाब प्रवणता बल उत्तर से दक्षिण दिशा की तरफ हो अर्थात उपोष्ण उच्चदाब से विषुवत वृत की ओर ही तो उत्तरी गोलार्ध में उष्णकटिबंध में पवनें उत्तर-पूर्व होती हैं।
- भूविक्षेपी पवनें क्या हैं?पृथ्वी की सतह से 2-3 कि.मी की ऊँचाई पर उपरी वायुमंडल में पवनें धरातलीय घर्षण के प्रभाव से मुक्त होती हैं जब समदाब रेखाएँ सीधी हों और घर्षण का प्रभाव न हो, तो दाब प्रवणता बल कोरिऑलिस बल से संतुलित हो जाता है और फलस्वरूप पवनें समदाब रेखाओं के समानांतर चलती हैं। ये पवनें भूविक्षेपी पवने कहलाती हैं।
- समुद्र व स्थल समीर का वर्णन करें|स्थल और जल भाग के अलग-अलग ठंडा और गर्म होने के कारण दिन में स्थल भाग की अपेक्षा अधिक गर्म हो जाता है। अतः स्थल भाग के ऊपर की वायु फैलती है और ऊपर उठती है। इस कारण स्थल भाग पर स्थानीय निम्न वायुदाब विकसित हो जाता है और इसके विपरीत समुद्र अपेक्षाकृत ठंडे रहते हैं अतः समुद्र की सतह पर उच्च वायुदाब होता है। वायुदाबों में अन्तर होने के कारण समुद्र से स्थल की ओर वायु चलती है। इसे समुद्र-समीर कहते हैं।रात के समय स्थल भाग शीघ्र ठंडा हो जाता है इसके परिणामस्वरूप स्थल भाग पर उच्च वायुदाब का क्षेत्र बन जाता है और समुद्री-भाग पर अपेक्षाकृत निम्न वायुदाब पाया जाता है अतः पवनें स्थल-भाग से समुद्र की ओर चला करती है। ऐसी पवनों को स्थल-समीर कहते हैं
- पवनों की दिशा व वेग को प्रभावित करने वाले कारक बताएँ?वायुमंडलीय दाब भिन्नता के कारण उत्पन्न बल उत्पन्न दाब प्रवणता बल , भूतल पर धरातलीय विषमताओं के कारण घर्षण बल व पृथ्वी के घूर्णन द्वारा लगने वाले कोरिऑलिस बल पवनों की दिशा व वेग को प्रभावित करते हैदाब-प्रवणता बल - किन्हीं दो स्थानों के बीच वायुदाब के अन्तर को दाब प्रवणता कहते हैं। किन्हीं दो स्थानों के बीच दाब प्रवणता अधिक होने पर पवनों की गति अधिक होती है, इसके विपरीत दाब प्रवणता कम होने पर पवनों की गति धीमी होती है।घर्षण बल- धरातल की विषमताओं के कारण उत्पन्न यह बल पवन की गति के विपरित काम करता है । तथा पवन की गति और दिशा को प्रभावित करता है पृथ्वी तल से 500 मीटर तक की ऊँचाई पर धरातलीय विषमताओं (पहाड़, पठार, मैदान, महासागर आदि) के कारण घर्षण अत्यधिक होता है और पवन की गति काफी कम हो जाती है समुद्र सतह पर घर्षण न्यूनतम होता है।कोरिऑलिस बल- पृथ्वी की घर्णून गति के कारण पवनें अपनी मलू दिशा से विक्षेपित हो जाती है इसे कोरिओलिस प्रभाव या कोरिओलिस बल कहा जाता है इस प्रभाव से पवनें उत्तरी गोलार्ध में अपनी मूल दिशा से दाहिनी तरफ व दक्षिणी गोलार्ध में अपने बाई तरफ विक्षेपित हो जाती हैं।
- पृथ्वी पर वायुमंडलीय सामान्य परिसंचरण का वर्णन करते हुए चित्र बनाएँ| 30° उत्तरी व दक्षिण अक्षांशों पर उपोष्ण कटिबंधीय उच्च वायुदाब के संभव कारण बताएँ|वायुमंडलीय सामान्य परिसंचरण महासागरीय जल को भी गतिमान करता है, जो पृथ्वी की जलवायु को प्रभावित करता है| उच्च सूर्यातप व निम्न वायुदाब होने से अंतर-उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (ITCZ) पर वायु संवहन धाराओं के रूप में ऊपर उठती है| उष्णकटिबंधों से आने वाली पवनें इस निम्न दाब क्षेत्र में अभिसरण करती हैं| अभिसारित वायु संवहन कोष्ठों के साथ ऊपर उठती हैं| यह क्षोभमंडल के ऊपर 14 कि.मी. की ऊँचाई तक ऊपर चढ़ती है और फिर ध्रुवों की तरफ प्रवाहित होती हैं| लगभग 30° उत्तर व 30° दक्षिण अक्षांश पर यह वायु ठंडी और भारी हो जाती है, जिससे वह नीचे उतर कर इकट्ठी हो जाती है। परिणाम स्वरूप यहाँ उच्च वायुदाब क्षेत्र बन जाता है। यहां धरातल के निकट वायु का दो दिशाओं में अपसरण होता है एक भूमध्य रेखा की तरफ तथा दूसरा ध्रुवों की तरफ। भूमध्य रेखा की ओर जाने वाली हवा भूमध्य रेखीय निम्न वायुदाब क्षेत्र में ऊपर उठती हवा की क्षतिपूर्ती करती हैं। और ध्रुवों की और जाने वाली धरातलीय हवा उपध्रुवीय निम्न वायुदाब पेटी में ऊपर उठती हवा की क्षतिपूर्ति करती है ध्रुवीय अक्षाँशों पर ठंडी सघन वायु का ध्रुवों पर अवतलन होता है और मध्य अक्षांशों की ओर ध्रुवीय पवनों के रूप में प्रवाहित होती हैं।30° उत्तरी व दक्षिण अक्षांशों पर उपोष्ण कटिबंधीय उच्च वायुदाब के कारण1. अभिसरण- उच्च सूर्यातप व निम्न वायुदाब होने से अंतर-उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (ITCZ) पर वायु संवहन धाराओं के रूप में ऊपर उठती है| उष्णकटिबंधों से आने वाली पवनें इस निम्न दाब क्षेत्र में अभिसरण करती हैं| अभिसारित वायु संवहन कोष्ठों के साथ ऊपर उठती हैं| यह क्षोभमंडल के ऊपर 14 कि.मी. की ऊँचाई तक ऊपर चढ़ती है और फिर ध्रुवों की तरफ प्रवाहित होती हैं| इसके परिणामस्वरूप लगभग 30° उत्तर व 30° दक्षिण अक्षांश पर वायु एकत्रित हो जाती है|2. अवतलन- 30° उत्तर व 30° दक्षिण अक्षांश पर एकत्रित वायु ठंडी और भारी हो जाती है, जिससे वायु का अवतलन होता है| परिणाम स्वरूप यहाँ उच्च वायुदाब क्षेत्र बन जाता है। यहां धरातल के निकट वायु का दो दिशाओं में अपसरण होता है
- उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों की उत्पत्ति केवल समुद्रों पर ही क्यों होती है ? उष्ण कटिबंधीय चक्रवात के किस भाग में मूसलाधार वर्षा होती है और उच्च वेग की पवनें चलती हैं और क्यों?उष्ण कटिबंधीय चक्रवात, उष्ण कटिबंधीय महासागरों में उत्पन्न व विकसित होते हैं| क्योंकि इनकी उत्पत्ति व विकास के लिए अनुकूल दशाएं समुद्री सतह पर सबसे ज्यादा प्रभावी होती हैइनकी उत्पत्ति व विकास के लिए अनुकूल स्थितियाँ हैं(i) वृहत् समुद्री सतह(ii) कोरिऑलिस बल का होना(iii) ऊर्ध्वाधर पवनों की गति में अंतर कम होना(iv) कमजोर निम्न दाब क्षेत्र या निम्न स्तर का चक्र्वातीय परिसंचरण का होना(v) समुद्री तल तंत्र पर ऊपरी अपसरणएक विकसित उष्ण कटिबंधीय चक्रवात के चारो तरफ प्रबल सर्पिल पवनें चलती है जिसे इसकी आँख कहा जाता है। इसका केन्द्रीय (अक्षु) क्षेत्र शांत होता है, जहाँ पवनों का अवतलन होता है| अक्षु के चारों तरफ अक्षुभित्ति होती है जहाँ वायु का प्रबल व वृत्ताकार रूप में आरोहण होता है; यह आरोहण क्षोभसीमा की ऊँचाई तक पहुँचता है| इसी क्षेत्र में पवनों का वेग अधिकतम होता है चव्रफवात की आँख से रेनबैंड विकरित होते हैं तथा कपासी वर्षा बादलों की पंक्तियाँ बाहरी क्षेत्र की ओर विस्थापित हो जाती हैं। जिससे इन चक्रवातों से तटीय निम्न इलाकों में मूसलाधार वर्षा होती है।
- समुद्र तल पर औसत वायुमंडलीय दाब कितना होता है ?समुद्र तल पर औसत वायुमंडलीय दाब 1013.25 मिलीबार के बराबर होता है।
- वायुमंडलीय दाब को किस यंत्र से मापा जाता है ?वायुमंडलीय दाब को पारद वायुदाबमापी अथवा निर्द्रव वायुदाब मापी (बेरोमीटर) से मापा जाता है।
- समदाब रेखाएँ किसे कहते हैं ?समुद्र तल से समान वायुदाब वाले स्थानों को मिलाने वाली रेखाएं समदाब रेखाएँ कहलाती हैं।
- वायुदाब या वायुमंडलीय दब से क्या अभिप्राय है ?पृथ्वी की सतह के एकांक क्षेत्रफल पर उसके उपर के वायु स्तम्भ के भार द्वारा डाला गया दाब वायुदाब या वायुमंडलीय दाब कहलाता हैं।
- चक्रवाती परिसंचरण व प्रतिचक्रवाती परिसंचरण में अंतर लिखिए ।निम्न दाब क्षेत्र के चारों तरफ पवनों का परिक्रमण चक्रवाती परिसंचरण कहलाता है। तथा उच्च वायु दाब क्षेत्र के चारों तरफ पवनों का परिक्रमण प्रतिचक्रवाती परिसंचरण कहलाता है।
- चक्रवात से आप क्या समझते हैं?चक्रवात निम्न वायुदाब के केन्द्र होते है जिसके चारों ओर बाहर की ओर वायुदाब क्रमशः बढ़ता जाता है, जिससे सभी दिशाओं से हवाएँ अन्दर केन्द्र की तरफ प्रवाहित होने लगती है। उत्तरी गोलार्ध में चक्रवात के भीतर पवनें घड़ी की सुइयों के घूमने की वपरीत दिशा में चलती हैं और दक्षिणी गोलार्ध में घड़ी की सुइयों के हैं
- दाब प्रवणता क्या है?किन्हीं दो स्थानों के बीच वायुदाब के अन्तर को दाब प्रवणता कहते हैं। यह प्रवणता क्षैतिज दिशा में होती है। किन्हीं दो स्थानों के बीच दाब प्रवणता अधिक होने पर पवनों की गति अधिक होती है, इसके विपरीत दाब प्रवणता कम होने पर पवनों की गति धीमी होती है।
- कोरिऑलिस बल क्या है ? इसके खोजकर्ता का नाम बताइए।पृथ्वी की घर्णून गति के कारण पवनें अपनी मूल दिशा से विक्षेपित हो जाती है इसे कोरिओलिस प्रभाव या कोरिओलिस बल कहा जाता है इसकी खोज फ्रांसीसी वैज्ञानिक कोरिऑलिस द्वारा की गई थी। अत: उन्हीं के नाम पर इसका कोरिऑलिस बल नाम पड़ा है।
- फैरल का नियम क्या है ?कोरिओलिस बल के प्रभाव से पवनें उत्तरी गोलार्ध में अपनी मूल दिशा से दाहिने तरफ व दक्षिण गोलार्ध में बाईं तरफ विक्षेपित हो जाती हैं। इसे फैरल का नियम भी कहते हैं।
- डोलडम से क्या अभिप्राय है ?डोलड्रम विषुवतीय निम्न वायुदाब पेटी है जो भूमध्य रेखा के दोनों ओर 5° अक्षांशों में मध्य स्थित है। इस पेटी में वायु शान्त रहती है।
- उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों को विश्व के अलग-अलग क्षेत्रो में किस नाम से जाना जाता है ?उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों को हिंद महासागर में ये ‘चक्रवात’ अटलांटिक महासागर में ‘हरीकेन’ के नाम से, पश्चिम प्रशांत और दक्षिण चीन सागर में ‘टाइफून’ और पश्चिमी आस्ट्रेलिया में ‘विली-विलीज’ के नाम से जाने जाते हैं।
- वाताग्र किसे कहते है ? ये कितने प्रकार के होते है समझाइए ।जब दो विपरीत स्वभाव वाली वायु (ठण्डी व गर्म) आकार मिलती है तो वे तापमान एवं आर्द्रता संबंधी अपनी पहचान बनाये रखने की लगातार कोशिश करती है। इस प्रक्रिया में इनके बीच में एक ढलुआ सीमा का विकास हो जाता है। इसे वाताग्र कहते हैं। वाताग्र चार प्रकार के होते हैं1. शीत वाताग्र - ठंडी वायु-राशि द्वारा गर्म वायु-राशि को ऊपर उठा देने पर जो वाताग्र बनता है वह शीत वाताग्र कहलाता है।2. उष्ण वाताग्र जब गर्म वायु-राशि ठंडी वायु-राशि के ऊपर चढ़ती है तो इससे बने वाताग्रको उष्ण वाताग्र कहते हैं।3. अचर वाताग्र दो विपरीत वायुराशियों के समानान्तर रूप में अलग होने एवं वायु की लम्बवत् गति के अभाव में बने वाताग्र को स्थायी वाताग्र कहते हैं।4. अधिविष्ट वाताग्र शीत वाताग्र के गर्म वाताग्र से मिलने एवं गर्म वायु का नीचे धरातल से सम्पर्क खत्म होने से उत्पन्न होने वाला वाताग्र अधिविष्ट वाताग्र कहलाता है।
- . वायुराशियों से क्या अभिप्राय है? उद्गम क्षेत्र के आधार पर इनको वर्गीकृत कीजिए।जब वायु बहुत बड़े और लगभग एक समान स्थलीय भाग या महासागरीय तल पर बहुत लम्बे समय तक स्थिर रहती है, तो यह उस क्षेत्र के गुणों को धारण कर लेती है। तापमान तथा आर्द्रता संबंधी विशिष्ट गुणों वाली यह वायु, वायुराशि कहलाती है।अर्थात वायु का वृहत् भाग जिसमें तापमान व आर्द्रता संबंधी क्षैतिज भिन्नताएँ बहुत कम पाई जाती हैं। वायुराशि कहलाती है। वायुराशियों का उद्गम क्षेत्र कहा जाता है। वायुराशियों के प्रमुख पाँच उद्गम क्षेत्र हैं।1. उष्णकटिबंधीय महासागरीय क्षेत्र2. उष्ण कटिबंधीय महाद्वीपीय क्षेत्र3. ध्रुवीय महासागीय क्षेत्र4. ध्रुवीय महाद्वीपीय क्षेत्र5. महाद्वीपीय आर्कटिक क्षेत्र
- घाटी एवं पर्वतीय समीर में अंतर लिखिए ।दिन के समय पर्वतीय ढाल घाटीतल की अपेक्षा अधिक गर्म हो जाते हैं। इससे ढालों पर वायु दाब कम और घाटी तल पर वायुदाब अधिक होता है। अतः दिन के समय घाटी तल से वायु मन्द गति से पर्वतीय ढालों की ओर चला करती है। इसे घाटी-समीर कहते हैंरात्रि के समय पर्वतीय ढालों पर विकिरण द्वारा ताप ह्मास अधिक होता है। और पर्वतीय ढाल ठंडे हो जाते है इससे पर्वतीय ढालों पर उच्च दाब और घाटी-तल में निम्न दाब बन जाता है। ऐसी परिस्थिति में पर्वतीय ढालों की ऊँचाईयों से ठण्डी और भारी हवा नीचे घाटी की ओर उतरने लगती है। इसे पर्वत-समीर कहते हैं।
- बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवात व उष्णकटिबंधीय चक्रवातों में अन्तर लिखिए ।1. बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवातों में स्पष्ट वाताग्र प्रणालियाँ होती हैं, जबकि उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों में स्पष्ट वाताग्र प्रणालियाँ नहीं होती है2. बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवात विस्तृत क्षेत्र को प्रभावित करते हैं जबकि उष्ण कटिबंधीय चक्रवात कम क्षेत्र को प्रभावित करते है3. बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवात की उत्पत्ति जल व स्थल दोनों पर होती है, जबकि उष्ण कटिबंधीय चक्रवात केवल समुद्रों में उत्पन्न होते हैं और स्थलीयभागों में पहुँचने पर नष्ट हो जाते हैं।4. बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवात पश्चिमसे पूर्व दिशा में चलते हैं। जबकि उष्ण कटिबंधीय चक्रवात पूर्व से पश्चिम में चलते हैं