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5. जैव प्रक्रम



जैव प्रक्रम

वे सभी प्रक्रम जो सम्मिलित रूप से अनुरक्षण(रखरखाव) का कार्य करते हैं जैव प्रक्रम कहलाते हैं।

जीवन के अनुरक्षण के लिए  निम्न  जैव प्रक्रम आवश्यक है

1. पोषण  2. श्वसन  3. परिवहन तंत्र   4. उत्सर्जन

1. पोषण

पोषक पदार्थों को ग्रहण करके उनको शरीर की प्रत्येक कोशिका तक पंहुचने की सम्पूर्ण प्रक्रिया पोषण कहलाती है

पोषण दो प्रकार का होता  है

1. स्वपोषी पोषण - पोषण की वह विधि जिसमे जीव प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा स्वयं अपना भोजन बनाते है स्वपोषी पोषण कहलाता है तथा ऐसे जीव स्वपोषी कहलाते है

प्रकाश संश्लेषण

प्रकाश संश्लेषण वह प्रक्रम है जिसमें स्वपोषी पौधे क्लोरोफिल व सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में वायुमंडल से कार्बन डाइऑक्साइड तथा मिट्टी से अवशोषित जल द्वारा कार्बोहाइड्रेट का निर्माण करते हैं। ये कार्बोहाइड्रेट पौधें को ऊर्जा प्रदान करने में प्रयुक्त होते हैं। जो कार्बोहाइड्रेट तुरंत प्रयुक्त नहीं होते हैं उन्हें मंड रूप में संचित कर लिया जाता है। यह संचित मंड आंतरिक ऊर्जा की तरह कार्य करता है तथा पौधे द्वारा आवश्यकतानुसार प्रयुक्त कर लिया जाता है। कुछ इसी तरह की स्थिति हमारे अंदर भी देखी जाती है, हमारे द्वारा खाए गए भोजन से व्युत्पन्न ऊर्जा का कुछ भाग हमारे शरीर में ग्लाइकोजन के रूप में संचित हो जाता है।

6CO + 12HO क्लोरोफिल  CH₁₂O + 6O + 6HO

                          सूर्य का प्रकाश

प्रकाश संश्लेषण प्रक्रम  दौरान निम्नलिखित घटनाएँ होती हैं

1. क्लोरोफिल द्वारा प्रकाश ऊर्जा को अवशोषित करना।

2. प्रकाश ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में रूपांतरित करना तथा जल अणुओं का हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन में अपघटन

3. कार्बन डाइऑक्साइड का कार्बोहाइड्रेट में अपचयन

यह आवश्यक नहीं है कि ये चरण तत्काल एक बाद दूसरा हो। उदाहरण लिए मरुद्भिद पौधे रात्रि में कार्बन डाइऑक्साइड लेते हैं और एक मध्यस्थ उत्पाद बनाते हैं। दिन में क्लोरोफिल ऊर्जा अवशोषित कर अंतिम उत्पाद बनाता है।

प्रकाशसंश्लेषण के लिए आवश्यक परिस्थतियाँ एवं कच्ची सामग्री

(1) सूर्य का प्रकाश- प्रकाशसंश्लेषण की अभिक्रिया हेतु ऊर्जा सूर्य के प्रकाश से ही प्राप्त होती है। सूर्य द्वारा प्रदत्त ऊर्जा का परिवर्तन हरे पौधों रासायनिक ऊर्जा में करते है।

(2) पर्णहरित या क्लोरोफिल - पत्ती के अनुप्रस्थ काट में हरे रंग के बिंदु दिखाई देते है जिन्हें क्लोरोफिल या क्लोरोप्लास्ट कहते है  प्रकाशसंश्लेषण प्रक्रिया केवल क्लोरोफिल की मौजूदगी में ही संभव है 

(3) जल- स्थलीय पौधे प्रकाशसंश्लेषण  लिए आवश्यक जल की पूर्ति जड़ों द्वारा मिट्टी में उपस्थित जल  अवशोषण से करते हैं। साथ ही मिट्टी में उपस्थित नाइट्रोजन, फॉस्पफोरस, लोहा तथा मैग्नीशियम आदि खनिज लवणों का अवशोषण भी पौधे द्वारा करते है

(4) कार्बन डाइऑक्साइड-  पौधे की पत्ती की सतह पर सूक्ष्म छिद्र पाए जाते हैं। जिन्हें रंध्र ( स्टोमेटा) कहते है प्रकाशसंश्लेषण लिए गैसों का आदान-प्रदान इन्हीं रंध्रों द्वारा होता है। इन रंध्रों का खुलना और बंद होना द्वार कोशिकाओं द्वारा नियंत्रित होता है। जब प्रकाशसंश्लेषण लिए कार्बन डाइऑक्साइड की आवश्यकता  होती है तब द्वार कोशिकाओं में जल भर जाता है और वे फूल जाती हैं जिससे रंध्र खुल जाता है। इसी तरह जब प्रकाशसंश्लेषण लिए कार्बन डाइऑक्साइड की आवश्यकता नहीं होती है तब द्वार कोशिकाओं में जल हानि होती है और द्वार कोशिकाएँ सिकुड़ जाती हैं तथा रंध्र बंद हो जाता है।

 

विषमपोषी पोषण - पोषण की वह विधि जिसमे जीव अपना भोजन स्वयं नहीं बनाते है और भोजन दूसरे जीवों से प्राप्त करते है विषमपोषी पोषण कहलाता है तथा ऐसे जीव विषमपोषी कहलाते है

अमीबा में पोषण

अमीबा एक कोशिकीय प्राणी है। अमीबा भोजन के रूप में बहुत छोटे (सूक्ष्म) पौधों और प्राणियों को खाता है अमीबा द्वारा भोजन ग्रहण करने की प्रक्रिया भक्षकाणु (फैगोसाइटोसिस) क्रिया कहलाती है। अमीबा में भोजन के अन्तर्ग्रण के लिए मुँह नहीं होता है। जब भोजनकण अमीबा के नजदीक आता है, तो यह कूटपादों (अँगुली जैसे अस्थायी प्रवर्ध) द्वारा भोजन कण को चारों ओर से घेर लेता है ये कूटपाद संगलित होकर अमीबा के भीतर खाद्य रिक्तिका बनाते हैं खाद्य रिक्तिका के अंदर पाचक एन्‍जाइमों की सहायता से जटिल पदार्थों का सरल पदार्थों में विघटन किया जाता है अम्रीबा की भोजन रिक्तिका में उपस्थित पचा हुआ भोजन विसरण द्वारा अमीबा कोशिका के कोशिकाद्रव्य में सीधे अवशोषित हो जाता है भोजन के अवशोषण के बाद, भोजन रिक्तिका समाप्त हो जाती है। भोजन के अपचित अंश को बाहर निकालने के लिए अमीबा में कोई विशेष अंग नहीं होता है जब अमीबा के भीतर पर्याप्त मात्रा में अपचित भोजन जमा हो जाता है, तो किसी भी स्थान पर उसकी कोशिका झिल्ली एकाएक फट जाती है और अपचित भोजन को अमीबा के शरीर के बाहर निकाल दिया जाता है


मनुष्य में पोषण

पाचन तंत्र के सभी अंग मिलकर आहारनाल का निर्माण करते हैं जो मुख से शुरू होकर मलद्वार तक जाती है आहारनाल सामान्यता 8 से 10 मीटर लंबी होती है आहारनाल के निम्न भाग होते हैं

1.मुख- मुख एक कटोरे नुमा आकृति मुख-गुहा में खुलता है जिसमें ऊपर कठोर व नीचे कोमल तालू पाए जाते हैं मुख में चारों ओर गति कर सकने वाली मांसल जिव्हा पाई जाती है मुंह को खोलने व बंद करने तथा भोजन पकड़ने हेतु मुख में दो मांशल होठ पाए जाते हैं मुख के ऊपरी तथा निचले जबड़ो में 16-16 दांत पाए जाते हैं जो भोजन को कुतरने, काटने, चीरने, फाड़ने व चबाने का काम करते हैं मुख गुहा में तीन जोड़ी लार ग्रंथियां पाई जाती है  लार ग्रंथियां लार (लालारस) का स्रावण करती है लार भोजन को चिकना व घुलनशील बनाती है तथा भोजन को निगलने में सहायता करती है लार में टायलिन(एमाइलेज) एंजाइम पाया जाता है जो भोजन में उपस्थित मंड को शर्करा मे परिवर्तन कर मुख में पाचन शुरु करती है

2.ग्रसिका या इसोफेगस -  इसका प्रमुख कार्य भोजन को मुखगुहा से आमाशय तक पहुंचाना है। इसोफेगस के ऊपरी भाग में ऊत्तको का एक पल्ला पाया जाता है जिसे घाटी ढक्कन या एपिग्लोटिस या घाटी ढक्कन कहते हैं यह पल्ला भोजन निगलते समय श्वासनली को बंद कर देता है और भोजन को श्वास नली में जाने से रोकता है

3.आमाशय- आमाशय  एक थैलेनुमा संरचना होती है आमाशय की भित्ति में जठर ग्रंथियां पाई जाती हैं। जो जठर रस का स्रावण करती है जठर रस (आमाशय रस) में हाइड्रोक्लोरिक अम्ल, प्रोटीन पाचक एंजाइम तथा श्लेष्मा पाया जाता है हाइड्रोक्लोरिक अम्ल भोजन को अम्लीय बनाता है हाइड्रोक्लोरिक अम्ल ही निष्क्रिय एन्जाइम पेप्सीनोजन को सक्रिय पेप्सिन में बदलता है श्लेष्मा अमाशय की दीवारों को हाइड्रोक्लोरिक अम्ल से बचाता है

4. क्षुद्रांत्र- क्षुद्रांत्र आहरनाल का सबसे लंबा भाग है सामान्यतः छोटी आंत की लंबाई 7 मीटर होती है भोजन का सर्वाधिक पाचन और अवशोषण छोटी आंत में ही होता है क्षुद्रांत्र कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन तथा वसा के पूर्ण पाचन का स्थल है।  घास खाने वाले शाकाहारी जंतुओं को सेल्युलोज पचाने के लिए लंबी क्षुद्रांत्र की आवश्यकता होती है। जबकि मांस का पाचन सरल है अतः बाघ जैसे मांसाहारी जंतुओं की क्षुद्रांत्र छोटी होती है। क्षुद्रांत्र की आंतरिक दीवारों पर अंगुलियों के समान संरचनाएँ पायी जाती हैं जिन्हें दीर्घरोम कहते हैं। ये दीर्घरोम आँत की दीवार की अवशोषण सतह को बढ़ाते हैं। आमाशय से भोजन जब क्षुद्रांत्र में प्रवेश करता है। तो यह अम्लीय होता है अग्न्याशयिक एंजाइमों की क्रिया के लिए उसे क्षारीय बनाया जाता है। यकृत से स्रावित पित्तरस भोजन को क्षारीय बनता है इसके अलावा यकृत पित्त रस वसा का पायसीकरण करता है अर्थात वसा की बड़ी-बड़ी बूंदों को छोटी-छोटी गोलिकाओ में बदलता है जिससे वसा पर एंजाइम की क्रियाशीलता बढ़ जाती है। अग्न्याशय अग्न्याशयिक रस का स्रावण करता है जिसमें प्रोटीन के पाचन के लिए ट्रिप्सिन, इमल्सीकृत वसा का पाचन करने के लिए लाइपेज तथा कार्बोहाइड्रेट के पाचन के लिए एमाइलेज एंजाइम पाया जाता है

क्षुद्रांत्र की भित्ति आंत्र रस स्रावित करती है। इसमें उपस्थित एंजाइम अंत में प्रोटीन को अमीनो अम्ल, जटिल कार्बोहाइड्रेट को ग्लुकोज़ में तथा वसा को वसा अम्ल तथा ग्लिसरॉल में परिवर्तित कर देते हैं। पाचित भोजन को क्षुद्रांत्र की भित्ति अवशोषित कर लेती है।

5. बृहदांत्र - क्षुद्रांत्र  का अंतिम भाग बृहदांत्र में खुलता है बृहदांत्र में  जल एवं खनिज लवणों का अवशोषण होता  है

6.मलाशय- मलाशय आहार नाल का अंतिम भाग है मलाशय का अंतिम भाग गुदानाल कहलाता है जो मलद्वार के द्वारा बहार खुलता है गुदानाल में सवर्णी पेशियां पाई जाती है जो अपशिष्ट पदार्थों के उत्सर्जन का नियंत्रण करती है

2.श्वसन

शरीर के बाहर से ऑक्सीजन को ग्रहण करना तथा कोशिकीय आवश्यकता के अनुसार खाद्य पदार्थों के विघटन में उसका उपयोग श्वसन कहलाता है।

श्वसन एक जैव रासायनिक प्रक्रिया है जिसमे ग्लूकोज का विखंडन होता है और उर्जा उत्पन्न होती है। सर्वप्रथम छः कार्बन वाले अणु ग्लूकोज का तीन कार्बन वाले अणु पायरुवेट में विखंडन होता है यह प्रक्रम कोशिकाद्रव्य में होता है। इसके आगे तीन परिस्थितियां हो सकती है 

1. वायु (ऑक्सीजन) की अनुपस्थिति में किण्वन के समय यीस्ट में पायरुवेट का विखंडन इथेनॉल तथा कार्बन डाइऑक्साइड में हो सकता है। एवं उर्जा मुक्त होती है यह प्रक्रम वायु (ऑक्सीजन) की अनुपस्थिति में होता है अतः इसे अवायवीय श्वसन कहते हैं।

2. वायु (ऑक्सीजन) की उपस्थिति में माइटोकॉन्ड्रिया पायरुवेट का विखंडन ऑक्सीजन का उपयोग करके माइटोकॉन्ड्रिया में होता है। यह प्रक्रम तीन कार्बन वाले पायरुवेट के अणु को विखंडन कार्बन डाइऑक्साइड व जल में होता है एवं उर्जा मुक्त होती है यह प्रक्रम वायु (ऑक्सीजन) की उपस्थिति में होता है, अतः इसे वायवीय श्वसन कहते है। वायवीय श्वसन में ऊर्जा का मोचन अवायवीय श्वसन की अपेक्षा बहुत अधिक होता है।

3. कभी-कभी जब हमारी पेशी कोशिकाओं में ऑक्सीजन का अभाव हो जाता है, पायरुवेट एक अन्य तीन कार्बन वाले अणु लैक्टिक अम्ल में परिवर्तित हो जाता है। लैक्टिक अम्ल का निर्माण होना क्रैम्प का कारण हो सकता है




ए.टी.पी

कोशिकीय श्वसन द्वारा मोचित ऊर्जा तत्काल ही ATP के संश्लेषण में प्रयुक्त हो जाती है जो कोशिका की अन्य क्रियाओं के लिए ईंधन की तरह प्रयुक्त होता है। 

एडेनोसिन ट्राइफॉस्फेट या एटीपी को कोशिकी की ऊर्जा मुद्रा कहा जाता है  एडिनोसीन डाई फॉस्फेट (ADP)तथा अकार्बनिक पफॉस्पेफट श्वसन प्रक्रम में मोचित ऊर्जा का उपयोग कर  ATP अणु बनाते है।

ADP    +            ऊर्जा      ATP

जल का उपयोग करने के बाद ए.टी.पी. में जब अंतस्थ पफॉस्पेफट की सहलग्नता खंडित होती है तो 30.5 KJ/mol  ऊर्जा मुक्त  होती है

मानव श्वसन तंत्र

मानव श्वसन तंत्र को निम्न भागों में विभाजित किया जा सकता है

1.नासिका- नासिका एक जोड़ी नासा द्वार से शुरू होती है दोनों नासा द्वारा एक पतली हड्डी एवं झिल्ली से पृथक होते हैं नासिका गुहा में महीन बाल एवं श्लेष्मा पाया जाता है जो वायु के साथ आए धूल के कण, परागकणों एवं अन्य अशुद्धियों को फेफड़ों में जाने से रोक लेते हैं श्वास सामान्यता नासिका द्वारा लिया जाता है परंतु आवश्यकता पड़ने पर मुख द्वारा भी श्वास लिया जा सकता है अतः मुख्य श्वसन तंत्र में द्वितीयक अंग के रूप में कार्य करता है

2.ग्रसनी- ग्रसनी एक कीपनुमा संरचना है जो तीनभागों में विभक्त होती है  नासाग्रसनी, मुखग्रसनी एवं कंठ ग्रसनी। नासिका गुहा का पृष्ठ भाग नासा ग्रसनी में खुलता है वायु नासिका गुहा से गुजरने केे पश्चात नासाग्रसनी से होकर मुख ग्रसनी में पहुंचती है मुख से ली गई वायु सीधे मुख ग्रसनी में पहुंचती है मुखग्रसनी से वायु कंठ ग्रसनी से होकर श्वास नली में पहुंचती है

3.श्वास नली- श्वास नली  C आकार के उपास्थि छलो से निर्मित एक नलिका होती है ये उपास्थि छले श्वास नली को पिचकने नहीं देते है  वक्ष गुहा में जाकर श्वास नली दो शाखाओं में विभाजित हो  जाती है तथा दोनों ओर के फेफड़ों में प्रविष्ट कर जाती है इन शाखाओं को श्वसनी  कहते हैं

4.फेफड़े- मध्यपट के ऊपर वक्षगुहा में एक जोड़ी फेंफड़े पाए जाते हैं बायां फेफड़ा दो खंडों तथा दांया फेफड़ा तीन खंडों में विभाजित होता है प्रत्येक श्वसनी अपनी ओर के फेफड़े में प्रवेश करके अनेक शाखाओं में बंट जाती है। इन शाखाओं को श्वसनिकाएं  कहते हैं। इन शाखाओं के अंतिम सिरे कुपिकाओं का निर्माण करते हैं इन कुपिकाओं में गैसों का आदान प्रदान होता है

5.डायफ्राम-डायफ्राम कंकाल पेशियों से निर्मित एक पतली चादरनुमा संरचना है जब हम श्वास लेते हैं,तो हमारी पसलियाँ ऊपर उठती हैं औ डायफ्राम संकुचित हो पेट की गुहा में नीचे की ओर खींच लिया जाता है इसके परिणामस्वरूप वक्षगुहिका बड़ी हो जाती है। इस कारण वायु फुफ्फुस के अंदर चूस ली जाती है तथा जब हम श्वास बाहर निकालते हैं,तो डायफ्राम शिथिल होकर वक्ष गुहा में ऊपर की ओर खींच लिया जाता है

3. परिसंचरण/वहन

मानव में वहन

रुधिर भोजन, ऑक्सीजन तथा वर्ज्य पदार्थों का हमारे शरीर में वहन करता है। रुधिर एक तरल संयोजी उतक है। रुधिर में एक तरल माध्यम होता है जिसे प्लज्मा कहते हैं, प्लाज्मा में रुधिर कोशिकाएं निलंबित रहती है प्लज्मा भाजेन, काबर्न डाइआक्साइड तथा नाइटाजनी वर्ज्य  पदार्थ  का विलीन रूप में वहन करता है। ऑक्सीजन का वहन लाल रुधिर कणिकाएँ करती हैं।

मानव ह्रदय

मानव हृदय पेशीय ऊतको से बना होता है तथा दोहोरी परत केेे झिल्लीमय आवरण से घिरा रहता है जिसे हृदयावरण कहते हैं इसमें ह्रदयावरण द्रव्य भरा रहता है जो हृदय की बाह्य आघातों से रक्षा करता है रुधिर को ऑक्सीजन व कार्बन डाइऑक्साइड दोनों का ही वहन करना होता है अतः ऑक्सीजन युक्त रुधिर को कार्बन डाइऑक्साइड युक्त रुधिर से मिलने को रोकने के लिए हृदय चार कोष्ठों में बँटा होता है। ऊपरी  दो छोटे कक्ष आलिंद कहलाते हैं तथा निचले दो बड़े कक्ष निलय कहलाते हैं लंबवत रूप से हृदय के दाएं भाग में दायां आलिंद व दायां निलय तथा बाएं भाग में  बायां आलिन्द व बायाँ निलय पाया जाता है बाएं आलिंद एवं बाएं निलय के बीच में द्विकपर्दी वाल्व पाया जाता है  दाएं आलिंद और निलय के बीच में एक त्रिकपर्दी वाल्व पाया जाता है  हैं ये वाल्व रुधिर को विपरीत दिशा में जाने से रोकते हैं अलिंद की अपेक्षा निलय की पेशीय भित्ति मोटी होती है क्योंकि निलय को पूरे शरीर में रुधिर भेजना होता है। जब अलिंद या निलय संकुचित होते हैं तो वाल्व उलटी दिशा में रुधिर प्रवाह को रोकते हैं।

जब दायाँ अलिंद फैलता है तो शरीर से अशुद्ध (अनाक्सीकृत) रक्त महाशिरा द्वारा दाएं अलिंद में प्रवेश करता है जैसे ही दायाँ अलिंद रूधिर से भर जाता है दायाँ अलिंद संकुचित होता है और  दायाँ निलय फैलता है। जिससे रुधिर दाएँ निलय में चला जाता है यहाँ से रुधिर को फुफ्फुस धमनी द्वारा ऑक्सीजनीकरण हेतु फेफड़ों में पंप कर दिया जाता है। फेफड़ों से शुद्ध (आक्सीकृृत) रक्त फुफ्फुस शिरा द्वारा बायेें आलिंद में प्रवेश करता है इस रुधिर को एकत्रित करते समय बायाँ अलिंद शिथिल रहता है। जब बायाँ निलय फैलता है तब यह संकुचित होता है जिससे रुधिर बायें निलय में आ जाता है। जब बायाँ निलय संकुचित होता है  तब रुधिर महाधमनी द्वारा शरीर में पंप कर दिया जाता है।

पक्षी और स्तनधरी जंतुओं के शारीर का तापमान निश्चित होता है अतः इन जंतुओं को अपने शरीर का तापक्रम बनाए रखने के लिए निरंतर उच्च ऊर्जा की आवश्यकता होती है। हृदय का दायाँ व बायाँ बँटवारा ऑक्सीजनित तथा विऑक्सीजनित रुधिर को मिलने से रोकने में सहायक होता है। इस तरह का बँटवारा शरीर को उच्च दक्षतापूर्ण ऑक्सीजन की पूर्ति कराता है।अतः इन जंतुओं का ह्रदय चार कोष्ठीय होता है  पक्षी और स्तनधरी जंतुओं में रक्त हृदय में से दो बार गुजरता है ऐसा रक्त परिसंचरण तंत्र जिसमें रक्त हृदय में से दो बार गुजरता है उसे दोहरा परिसंचरण तंत्र कहते हैं

जल स्थल चर या बहुत से सरीसृप जैसे जंतुओं में शरीर का तापक्रम पर्यावरण के तापक्रम पर निर्भर होता है। अतः इन जंतुओं में को अपने शरीर का तापक्रम बनाए रखने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता नहीं होती है और ये ऑक्सीजनित तथा विऑक्सीजनित रुधिर को कुछ सीमा तक मिलना भी सहन कर लेते हैं। इसलिए जल स्थल चर या बहुत से सरीसृप जैसे जंतुओं में तीन कोष्ठीय हृदय होता है

मछली के हृदय में केवल दो कोष्ठ होते हैं। यहाँ से रुधिर क्लोम में भेजा जाता है जहाँ यह ऑक्सीजनित होता है और सीधा शरीर में भेज दिया जाता है। इस तरह मछलियों के शरीर में एक चक्र में केवल एक बार ही रुधिर हृदय में जाता है।

रक्तदाब

रुधिर वाहिकाओं की भित्ति के विरुद्ध लगने वाला दाब रक्तदाब कहलाता हैं। यह दाब शिराओं की अपेक्षा धमनियों में बहुत अधिक होता है। धमनी के अंदर रुधिर का दाब निलय प्रंकुचन (संकुचन) के दौरान प्रकुंचन दाब तथा निलय अनुशिथिलन (शिथिलन) के दौरान धमनी के अंदर का दाब अनुशिथिलन दाब कहलाता है। सामान्य प्रकुंचन दाब लभगग 120 मिमी(पारा) तथा अनुशिथिलन दाब लगभग 80 मिमी (पारा) होता है। रक्तदाब  का मापन स्पफाईग्मोमैनोमीटर नामक यंत्र से किया जाता है।

नलिकाएँ रुधिर वाहिकाएँ

धमनी वे रुधिर वाहिकाएँ हैं जो रुधिर को हृदय से शरीर के विभिन्न अंगों तक ले जाती हैं। धमनी की भित्ति मोटी तथा लचीली होती है क्योंकि रुधिर हृदय से उच्च दाब से निकलता है।

शिराएँ विभिन्न अंगों से रुधिर एकत्र करके वापस हृदय में लाती हैं। उनमें मोटी भित्ति की आवश्यकता नहीं है क्योंकि रुधिर में दाब होता है, बल्कि उनमें रुधिर को एक ही दिशा में प्रवाहित करने के लिए वाल्व होते हैं।

प्लेटलैट्स द्वारा अनुरक्षण

जब हम घायल होते है तो यदि रक्तस्राव होने लग जाये तो शारीर से रुधिर की हानि होगी एवं रक्तस्राव से दाब में कमी आ जाएगी जिससे हमारी पम्पिंग  प्रणाली की दक्षता में कमी आ जाएगी। इसे रोकने के लिए रूधिर में प्लेटलैट्स पाई जाती है ये कोशिकाएं  शारीर में भम्रण करती हैं आरै रक्तस्राव के स्थान पर रुधिर का थक्का बनाकर मार्ग अवरुद्ध कर देती हैं। जिससे रक्तस्राव नहीं होता है

लसीका

लसीका हल्के पीले रंग का एक तरल है केशिकाओं की भित्ति में उपस्थित छिद्रों द्वारा कुछ प्लैज्मा, प्रोटीन तथा रुधिर कोशिकाएं बाहर निकलकर अंतर्कोशिकीय अवकाश में आ जाते हैं तथा ऊतक तरल या लसीका का निर्माण करते हैं। यह रुधिर के प्लैज्मा की तरह ही है लेकिन यह रंगहीन तथा इसमें अल्पमात्रा में प्रोटीन होते हैं। लसीका, मानव शरीर में परिसंचरण का एक अन्य माध्यम है। पचा हुआ तथा क्षुद्रांत्रा द्वारा अवशोषित वसा का वहन लसीका द्वारा होता हैलसीका शरीर की कोशिकाओं के बाहर रहता है, इसलिए यह बाह्यकोशिकीय तरल भी कहलाता है। ।

 

पादपों में परिवहन

पादपों में परिवहन दो प्रकार के संहवन उतकों द्वारा होता है जाइलम  जल और खनिज लवणों को वहन करता है। तथा  फ्लोयम  भोजन तथा दूसरे पदार्थों का स्थानांतरण करते है

जल का परिवहन

पादप में जल और खनिज लवण का वहन जाइलम द्वारा होता है  जड़ों की कोशिकाएँ मृदा के संपर्क में हैं तथा वे सक्रिय रूप से आयन प्राप्त करती हैं। यह जड़ और मृदा के मध्य आयन सांद्रण में एक अंतर उत्पन्न करता है। इस अंतर को समाप्त करने के लिए मृदा से जल जड़ में प्रवेश कर जाता है। और जल के स्तंभ का निर्माण करता है जो लगातार ऊपर की ओर धकेला जाता है। पादपो के सबसे ऊँचाई के बिन्दू तक जल पहुँचाने में  यह दाब पर्याप्त नहीं है। यह कार्य वाष्पोत्सर्जन द्वारा होता है

वाष्पोत्सर्जन द्वारा जिस जल की हानि होती है उसका प्रतिस्थापन पत्तियों में जाइलम वाहिकाओं द्वारा हो जाता है। कोशिका से जल के अणुओं का वाष्पन एक चूषण उत्पन्न करता है जो जल को जड़ों में उपस्थित जाइलम कोशिकाओं द्वारा खींचता है। अतः वाष्पोत्सर्जन  जल के अवशोषण एवं जड़ से पत्तियों तक जल तथा उसमें विलेय खनिज लवणों के उपरिमुखी गति में सहायक है। जल के परिवहन में रात्रि के समय मूल दाब तथा दिन में रंध्रों के खुले होने पर वाष्पोत्सर्जन कर्षण, जाइलम में जल की गति के लिए मुख्य प्रेरक बल है।

भोजन तथा दूसरे पदार्थों का स्थानांतरण

पौधों में भोजन तथा दूसरे पदार्थों का स्थानांतरण फ्लोयम द्वारा होता है। भोजन तथा अन्य पदार्थों का स्थानांतरण संलग्न साथी कोशिका की सहायता से चालनी नलिका में उपरिमुखी तथा अधेमुखी दोनों दिशाओं में होता है।'फ्लोएम में भोजन का स्थानांतरण ऊर्जा के उपयोग द्वारा होता है। पत्तियों में निर्मित भोजन को ATP से ऊर्जा का प्रयोग करके फ्लोएम ऊतक की चालनी नलिकाओं में भरा जाता है। इन चालनी नलिकाओं में परासरण क्रिया द्वारा जल प्रवेश करता है जिसके कारण फ्लोएम ऊतकों में दाब बढ़ जाता है। फ्लोएम ऊतक में उत्पन्न यह उच्च दाब भोजन को पौधे के उन भागों तक  पहुँचाता है। जहाँ दाब कम होता है। इससे फ्लोएम पौधे की आवश्यकता के अनुसार भोजन का संचलन करता है उदाहरण के लिए, बसंत में जड़ व तने के ऊतकों में भंडारित शर्करा का स्थानांतरण कलिकाओं में होता है जिन्हें विकसित होने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है।

 

4. उत्सर्जन

जब रासायनिक अभिक्रियाओं में कार्बन स्रोत तथा ऑक्सीजन का उपयोग ऊर्जा प्राप्ति के लिए होता है, तब ऐसे उपोत्पाद भी बनते हैं जो शरीर की कोशिकाओं के लिए न केवल अनुपयोगी होते हैं बल्कि वे हानिकारक भी हो सकते हैं। इन अपशिष्ट उपोत्पादों को शरीर से बाहर निकालना अति आवश्यक होता है। वह जैव प्रक्रम जिसमें हानिकारक उपापचयी वर्ज्य पदार्थों का निष्कासन होता है, उत्सर्जन कहलाता है।

मानव उत्सर्जन तंत्र

मानव उत्सर्जन तंत्र के निम्नलिखित भाग होते हैं

1.वृक्क- वृक्क उदर में रीढ़ की हड्डी के दोनों ओर स्थित होते हैं। वृक्क मानव का मुख्य उत्सर्जी अंग है  वृक्क के  दो भाग होते हैं बाहरी भाग को कोर्टेक्स और भीतरी भाग को मेडुला कहते हैं प्रत्येक वृृृक्क लाखों उत्सर्जन इकाइयों से मिलकर बना होता है जिन्हें वृक्काणु (नेफ्रॉन) कहते हैं 

2.मूत्रवाहिनी- प्रत्येक वृक्क  से एक लम्बी तथा संकरी वाहिनी निकलती है जिसे मूत्रवाहिनी (Ureter) कहते हैं। दोनों ओर की मूत्रवाहिनियाँ मूत्राशय में खुलती है 

3.मूत्राशय- यह एक थैलेनुमा संरचना होती है जिसमें दोनों ओर से मूत्र वाहिनियां आकर खुलती है मूत्राशय में मूत्र एकत्रित होता है 

4. मूत्रमार्ग- मूत्र मार्ग- यह एक  पेशीय नलिका  होती हे जो मूत्राशय से निकल कर स्खलन वाहिनी से मिल कर मूत्र जनन नलिका बनाती है। मूत्र मार्ग द्वारा शुक्राणु एवं मूत्र दोनों ही बाहर निकलते हैं

वृक्काणु (नेफ्रॉन)

वृक्काणु या नेफ्रोन वृक्क की कार्यात्मक इकाई है  प्रत्येक नेफ्रॉन में एक कीपनुमा संंरचना पायी जाती है जिसे बोमेन संपुटकहते हैं बोमेन संपुट में पतली रुधिर कोशिकाओं का कोशिकागुच्छ पाया जाता है जिसे ग्लौमेरुलस कहते हैं बोमन संपुट के निचले हिस्से से एक नलिका निकलती है जिसे वृक्क नलिका कहते है इसके तीन भाग होतेे हैं  समीपस्थ नलिका, हेनले लूप व दूरस्थ नलिका  


मानव में मूत्र निर्माण की प्रक्रिया

1.छानना या परानिस्यंदन – जब युरियायुक्त असुद्ध रक्त अभीवाही धमनी द्वारा कोशिकगुच्छ में प्रवेश करता है कोशिकगुच्छ  रक्त को छनता है इस दौरान रूधिर में उपस्थित पदार्थ जैसे ग्लुकोज, लवण, अमीनो अम्ल, जल, तथा यूरिया, इत्यादि बोमन सम्पुट में चले जाते हैं

2.चयनात्मक पुनःअवशोषण - बोमन सम्पुट से छनित वृक नलिका में पहुंचता है यहां छनित में से ग्लुकोज, लवण, जल व अमीनो अम्ल( 99%) का पुनः अवशोषण होता है केवल अपशिष्ट पदार्थ यूरिया, कुछ अवांछित लवण तथा अतिरिक्त जल नलिका में रह जाते हैं । तथा रक्त ग्लोमेरुलस में से अपवाही धमनी द्वारा बाहर निकल जाता है

3.स्रवण- वृक्कनलिका की नलिका में शेष बचा छनित अब मूत्र कहलाता है प्रत्येक वृक्क में बनने वाला मूत्र एक लंबी नलिका, मूत्रावाहिनी द्वारा मूत्राशय मे चला जाता है मूत्राशय में, मूत्र को कुछ समय के लिए संग्रह किया जाता है और अंत में मूत्रमार्ग द्वारा शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है।

कृत्रिम वृक्क (अपोहन)

वृक्क के अक्रिय होने की अवस्था में कृत्रिम वृक्क का उपयोग कर रूधिर को नियमित रूप से शुद्ध किया जा सकता है। कृत्रिम वृक्क नाइट्रोजनी अपशिष्ट उत्पादों को रुधिर से अपोहन विधि द्वारा निकालने की एक युक्ति है। रूधिर से अपशिष्ट पदार्थों को पृथक कर रूधिर  को शुद्ध करने के लिए प्रयुक्त क्रियाविधि अपोहन या डायलिसिस कहलाती है कृत्रिम वृक्क में बहुत सी अर्धपारगम्य की लम्बी नलियां अपोहन द्रव से भरी टंकी में लगी होती हैं। रोगी के रुधिर को इन नलिकाओ से प्रवाहित कराते हैं। इस मार्ग में रुधिर से अपशिष्ट उत्पाद विसरण द्वारा अपोहन द्रव में आ जाते हैं। शुद्धिकृत रुधिर वापस रोगी के शरीर में पंपित कर दिया जाता है। कृत्रिम वृक्क में कोई पुनरवशोषण नहीं है।


पादप में उत्सर्जन

प्राणियों की भांति, पौधों में भी उनकी जीवन प्रक्रियाओं के दौरान कई अपशिष्ट (बेकार) पदार्थ उत्पन्न होते हैं । प्राणियों की तुलना में, पौधे अपशिष्ट उत्पादों को बहुत ही धीरे और बहुत ही कम मात्राओं में उत्पन्न करते हैं। अपशेष ( हानिकारक पदार्थ) निकालने के लिए प्राणियों की भांति पौधों में कोई विशिष्ट अंग नहीं होते हैं।

पौधों द्वारा उत्पन्न प्रमुख अपशिष्ट उत्पाद कार्बन डाइऑक्‍साइड, ,ऑक्सीजन, जल वाष्प, गोंद और रेजिन होते हैं। जिनका उत्सर्जन निम्न प्रकार से होता है

(I) पौधों में श्वसन और प्रकाशसंश्लेषण के गैसीय अपशेषों ( कार्बन डाइऑक्साइड, जल वाष्प और ऑक्सीजन ) को पत्तियों में रंध्रों और तनों में वातरंध्रों द्वारा निकाला जाता है

(II) कुछ पौधों में अपशिष्ट उत्पाद पौधों की पत्तियों, छालों, तथा फलों में संचित होते हैं | पौधे पत्तियों को झाड़कर, छालों को उतारकर, और फलों को गिराकर इन अपशेषों से छुटकारा पा लेते हैं।

(III) पौधे, गोंद और रेजिन के रूप में उन्हें स्रावित करके अपशेषों से छुटकारा पा लेते हैं।

(IV) पौधे कुछ अपशिष्ट पदार्थों को अपने आसपास की मृदा में उत्सर्जित करते हैं।

अंगदान

अंगदान एक उदार कार्य है जिसमें किसी ऐसे व्यक्ति को अंगदान किया जाता है जिसका कोई अंग ठीक से कार्य न कर रहा हो। किसी व्यक्ति द्वारा अंग प्रत्यारोपण के लिए अपने अंगो का दान करना अंगदान कहलाता है अंगदान में किसी एक व्यक्ति (दाता) के शरीर से शल्य चिकित्सा द्वारा अंग निकालकर किसी अन्य व्यक्ति (ग्राही) के शरीर में प्रत्यारोपित किया जाता है। सामान्य अंग प्रत्यारोपण में कॉर्निया, गुर्दे, दिल, यकृत, अग्नाशय, फेंफड़े, आंत और अस्थिमज्जा शामिल हैं अधिकांशतः अंगदान व ऊतक दान दाता की मृत्यु के ठीक बाद या जब डॉक्टर किसी व्यक्ति के मस्तिष्क को मृत घोषित करता है तबकिया जाता है लेकिन कुछ अंगों जैसे  गुर्दे, यकृत का कुछ भाग, फेफड़े इत्यादि और ऊतकों का दान दाता के जीवित होने पर भी किया जा सकता है। 


  1. जैव प्रक्रम किसे कहते है 
    वे सभी प्रक्रम जो सम्मिलित रूप से अनुरक्षण का कार्य करते हैं जैव प्रक्रम कहलाते हैं। 
  2. स्वस्थ मानव का रक्तचाप कितना होता है
    120/80( प्रकुंचन दाब /अनुशिथिलन दाब)
    (प्रकुंचन दाब लभगग 120 मिमी(पारा) तथा अनुशिथिलन दाब लगभग 80 मिमी (पारा) होता है)
  3. भोजन का सर्वाधिक पाचन और अवशोषण किस अंग द्वारा होता है
    छोटी आंत
  4. बड़ी आंत का मुख्य कार्य क्या है
    जल एवं लवण का अवशोषण
  5. गैसों का विनिमय किसके द्वारा होता है
    कुपिकाओं द्वारा
  6. रक्तदाब किसे कहते हैं
    रक्त वाहिनियों में बहते रक्त द्वारा वाहिनियों की दीवारों पर डाले गए दाब को रक्त दाब कहते हैं
  7. उत्सर्जन तंत्र की क्रियात्मक इकाई क्या है
    नेफ्रॉन /वृक्काणु
  8. लार में पाए जाने वाले एंजाइम का नाम हुए कार्य लिखिए
    टायलिन (एमाइलेज) 
  9. दोहरा परिसंचरण  किसे कहते हैं
    ऐसा रक्त परिसंचरण तंत्र जिसमें रक्त हृदय में से दो बार गुजरता है उसे द्विसंचरण या दोहरा कहते है
  10. पादप के कोई दो अपशिष्ट पदार्थों के नाम लिखिए 
    गोंद व रेजिन,  ये पुराने जायलम में संचित रहते है 
  11. एक ATP के अणु के विखंडन से कितनी उर्जा मुक्त होती है 
    एक ATP के अणु के विखंडन से 30.5 KJ/mol  ऊर्जा मुक्त  होती है
  12. श्वास नली में उपास्थि छल्लो का क्या कार्य है
    यह छल्ले श्वास नली को आपस में चिपकने नहीं देते हैं तथा इसे सदैव खुला रखते हैं
  13. मानव में किस प्रकार का रक्त परिसंचरण तंत्र पाया जाता है
    बंद परिसंचरण तंत्र(दोहरा परिसंचरण)
  14. जीवन के अनुरक्षण के लिए आप किन प्रक्रमों को आवश्यक मानेंगे?
    जीवन के अनुरक्षण के लिए जैव प्रक्रिया जैसे, पोषण, उत्सर्जन, श्वसन, परिवहन आवश्यक है|
  15. श्वसन किसे कहते है 
    शरीर के बाहर से ऑक्सीजन को ग्रहण करना तथा कोशिकीय आवश्यकता के अनुसार खाद्य पदार्थों के विघटन में उसका उपयोग श्वसन कहलाता है।
  16. उच्च संगठित पादप में वहन तंत्र के घटक क्या हैं?
    उच्च संगठित पादप में वहन तंत्र के मुख्य घटक जाइलम तथा फ्लोएम ऊतक हैं।जाइलम मृदा से प्राप्त जल और खनिज लवणों का वहन करता है| फ्लोएम भोजन एवं अन्य पदार्थों का  वहन करता है|
  17. आमाशय में HCl के कार्य लिखिए
    1.निष्क्रिय एन्जाइम पेप्सीनोजन को सक्रिय पेप्सिन में बदलता है
    2.भोजन में उपस्थित हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट करता है
  18. हमारे भोजन में वसा का पाचन कैसे होता है? यह प्रक्रम कहाँ होता है?
    हमारे शरीर में वसा का पाचन मुख्य रूप से क्षुद्रांत्र में होता है। क्षुद्रांत्र में वसा बड़ी गोलिकाओं के रूप में होती है जिससे उस पर एंजाइम का कार्य करना मुश्किल हो जाता है। पित्त लवण उन्हें छोटी गोलिकाओं में खंडित कर देता है जिससे एंजाइम की क्रियाशीलता बढ़ जाती है जो वसा को अम्ल तथा ग्लिसरॉल में परिवर्तित कर देते हैं।
  19. हमारे शारीर में  प्लेटलैट्स द्वारा अनुरक्षण कैसे होता है 
    जब हम घायल होते है तो यदि रक्तस्राव होने लग जाये तो शारीर से रुधिर की हानि होगी एवं रक्तस्राव से दाब में कमी आ जाएगी जिससे हमारी पम्पिंग  प्रणाली की दक्षता में कमी आ जाएगी। इसे रोकने के लिए रूधिर में प्लेटलैट्स पाई जाती है ये कोशिकाएं  शारीर में भम्रण करती हैं आरै रक्तस्राव के स्थान पर रुधिर का थक्का बनाकर मार्ग अवरुद्ध कर देती हैं। जिससे रक्तस्राव नहीं होता है
  20. भोजन के पाचन में लार की क्या भूमिका है
    लार भोजन को चिकना व घुलनशील बनाती है तथा भोजन को निगलने में सहायता करती है लार में टायलिन(एमाइलेज) एंजाइम पाया जाता है जो भोजन में उपस्थित मंड को शर्करा मे परिवर्तन कर मुख में पाचन शुरु करती है
  21. पचे हुए भोजन को अवशोषित करने के लिए क्षुदांत्र को कैसे अभिकल्पित किया गया है?
    क्षुदांत्र के आन्तरिक आस्तर पर अनेक अँगुली जैसे प्रवर्ध होते हैं जिन्हें दीर्घरोम कहते हैं| ये अवशोषण का सतही क्षेत्रफल बढ़ा देते हैं| दीर्घरोम में रूधिर वाहिकाओं की बहुतायत होती है जो भोजन को अवशोषित करके शरीर की प्रत्येक कोशिका तक पहुँचाते हैं| 
  22. स्तनधारी तथा पक्षियों में ऑक्सीजनित तथा विऑक्सीजनित रुधिर को अलग करना क्यों आवश्यक है
    पक्षी और स्तनधरी जंतुओं के शारीर का तापमान निश्चित होता है अतः इन जंतुओं को अपने शरीर का तापक्रम बनाए रखने के लिए निरंतर उच्च ऊर्जा की आवश्यकता होती है। हृदय का दायाँ व बायाँ बँटवारा ऑक्सीजनित तथा विऑक्सीजनित रुधिर को मिलने से रोकने में सहायक होता है। इस तरह का बँटवारा शरीर को उच्च दक्षतापूर्ण ऑक्सीजन की पूर्ति कराता है।अतः इन जंतुओं का ह्रदय चार कोष्ठीय होता है अतः स्तनधारी तथा पक्षियों में ऑक्सीजनित तथा विऑक्सीजनित रुधिर को अलग करना आवश्यक है
  23. पादप में  भोजन तथा दूसरे पदार्थों का का स्थानांतरण कैसे होता है?
    पौधों में भोजन तथा दूसरे पदार्थों का स्थानांतरण फ्लोयम द्वारा होता है। भोजन तथा अन्य पदार्थों का स्थानांतरण संलग्न साथी कोशिका की सहायता से चालनी नलिका में उपरिमुखी तथा अधेमुखी दोनों दिशाओं में होता है।'फ्लोएम में भोजन का स्थानांतरण ऊर्जा के उपयोग द्वारा होता है। पत्तियों में निर्मित भोजन को ATP से ऊर्जा का प्रयोग करके फ्लोएम ऊतक की चालनी नलिकाओं में भरा जाता है। इन चालनी नलिकाओं में परासरण क्रिया द्वारा जल प्रवेश करता है जिसके कारण फ्लोएम ऊतकों में दाब बढ़ जाता है। फ्लोएम ऊतक में उत्पन्न यह उच्च दाब भोजन को पौधे के उन भागों तक  पहुँचाता है। जहाँ दाब कम होता है। इससे फ्लोएम पौधे की आवश्यकता के अनुसार भोजन का संचलन करता है उदाहरण के लिए, बसंत में जड़ व तने के ऊतकों में भंडारित शर्करा का स्थानांतरण कलिकाओं में होता है जिन्हें विकसित होने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है।
  24. प्रकाशसंश्लेषण के लिए आवश्यक  कच्ची सामग्री पौधे कहाँ से प्राप्त करते है 
    प्रकाशसंश्लेषण के लिए आवश्यक  कच्ची सामग्री जल एवं  कार्बन डाइऑक्साइड है 
    (1) जल- स्थलीय पौधे प्रकाशसंश्लेषण  लिए आवश्यक जल की पूर्ति जड़ों द्वारा मिट्टी में उपस्थित जल  अवशोषण से करते हैं। साथ ही मिट्टी में उपस्थित नाइट्रोजन, फॉस्पफोरस, लोहा तथा मैग्नीशियम आदि खनिज लवणों का अवशोषण भी पौधे द्वारा करते है
    (2 ) कार्बन डाइऑक्साइड-  पौधे की पत्ती की सतह पर सूक्ष्म छिद्र पाए जाते हैं। जिन्हें रंध्र ( स्टोमेटा) कहते है प्रकाशसंश्लेषण लिए गैसों का आदान-प्रदान इन्हीं रंध्रों द्वारा होता है।
    इनके अलावा सूर्य के  प्रकाश से उर्जा प्राप्त करते है 
  25. जठर रस( आमाशय रस) में पाए जाने वाले स्राव व उनके कार्य लिखिए
    1.म्यूकस (श्लेष्मा ) - ग्रीवा कोशिकाओं द्वारा स्रावित म्यूकस अमाशय की दीवारों को हाइड्रोक्लोरिक अम्ल से बचाता है
    2.हाइड्रोक्लोरिक अम्ल- ऑक्सिन्टिक कोशिकाओं द्वारा स्रावित HCl भोजन को अम्लीय माध्यम प्रदान करता है
    3.एन्जाइम- पेप्सिन- प्रोटीन को पेप्टाइड में बदलता है
                रेनिन-केसीन को पेरासीन में बदलता है (बच्चों में)
  26. स्वपोषी पोषण के लिए आवश्यक परिस्थितियां कौन सी हैं और उसके उपोत्पाद क्या हैं?
    स्वपोषी पोषण के लिए आवश्यक परिस्थितियां सूर्य का प्रकाश, पर्णहरित या क्लोरोफिल, जल व कार्बन डाइऑक्साइड है स्वपोषी पोषण में स्वपोषी पौधे क्लोरोफिल व सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में वायुमंडल से कार्बन डाइऑक्साइड तथा मिट्टी से अवशोषित जल द्वारा कार्बोहाइड्रेट का निर्माण करते हैं। 
    6CO₂ + 12H₂O ➡ क्लोरोफिल  ➡ C₆H₁₂O₆ + 6O₂ + 6H₂O
                              सूर्य का प्रकाश
    ग्लूकोज, ऑक्सिजन व जल इसके उपोत्पाद  हैं
  27. जाइलम तथा फ्लोएम में पदार्थों के वहन में क्या अंतर है?
    1.जाइलम मृदा से प्राप्त जल और खनिज लवणों को वहन करता है जबकि फ्लोएम भोजन के परिवहन करता है
    2. जल को पौधों के जड़ों से अन्य भागों तक ले जाता है|जबकि भोजन को ऊपर और नीचे दोनों दिशाओं में ले जाया जाता है 
    3. जाइलम में पदार्थों का वहन सरल भौतिक दबावों की सहायता से होता है, जैसे वाष्पोत्सर्जन जबकि फ्लोएम में भोजन का वहन एटीपी से प्राप्त ऊर्जा के द्वारा से होता है 
  28. प्रकाश संश्लेषण प्रक्रम  दौरान कौन-कौन सी  घटनाएँ होती हैं
    प्रकाश संश्लेषण प्रक्रम  दौरान निम्नलिखित घटनाएँ होती हैं
    1. क्लोरोफिल द्वारा प्रकाश ऊर्जा को अवशोषित करना।
    2. प्रकाश ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में रूपांतरित करना तथा जल अणुओं का हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन में अपघटन
    3. कार्बन डाइऑक्साइड का कार्बोहाइड्रेट में अपचयन
  29. वायवीय तथा अवायवीय श्वसन में क्या अंतर हैं? 
    1. वायवीय श्वसन ऑक्सीजन की उपस्थिति में होता है| जबकि अवायवीय श्वसन ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में होता है|
    2. वायवीय श्वसन में पायरुवेट का विखंडन कार्बन डाइऑक्साइड व जल में होता है जबकि अवायवीय श्वसन  में पायरुवेट का विखंडन इथेनॉल तथा कार्बन डाइऑक्साइड में होता है। 
    3. वायवीय श्वसन में ऊर्जा का मोचन अधिक होता है जबकि अवायवीय श्वसन में उर्जा का मोचन कम होता है।
    4. वायवीय श्वसन एक साधारण श्वसन क्रिया है जो सभी जीवों में होती है जबकि अवायवीय श्वसन असाधारण श्वसन क्रिया है जो  किण्वन के समय यीस्ट में में होती है
  30. धमनी व शिरा में अंतर लिखिए
    1. धमनीयां रुधिर को हृदय से शारीर के विभिन्न अंगों तक रक्त पहुंचाती है। जबकि शिराएं रक्त को अंगों से हृदय की ओर लाती है 
    2. .धमनीयों में रक्त दाब अधिक होता है  जबकि शिराओं में  रक्तदाब कम होता है ।
    3.धमनीयों की  दीवारें मोटी होती है तथा वाल्व नहीं पाए जाते हैं जबकि शिराओं की  दिवारें पतली होती है  तथा इनमें वाल्व पाए जाते हैं
  31. पादप में जल और खनिज लवण का वहन कैसे होता है?
    पादप में जल और खनिज लवण का वहन जाइलम द्ऊवारा होता है  जड़ों की कोशिकाएँ मृदा के संपर्क में हैं तथा वे सक्रिय रूप से आयन प्राप्त करती हैं। यह जड़ और मृदा के मध्य आयन सांद्रण में एक अंतर उत्पन्न करता है। इस अंतर को समाप्त करने के लिए मृदा से जल जड़ में प्रवेश कर जाता है। और जल के स्तंभ का निर्माण करता है जो लगातार ऊपर की ओर धकेला जाता है। पादपो के सबसे ऊँचाई के बिन्दू तक जल पहुँचाने में  यह दाब पर्याप्त नहीं है। यह कार्य वाष्पोत्सर्जन द्वारा होता है
    वाष्पोत्सर्जन द्वारा जिस जल की हानि होती है उसका प्रतिस्थापन पत्तियों में जाइलम वाहिकाओं द्वारा हो जाता है। कोशिका से जल के अणुओं का वाष्पन एक चूषण उत्पन्न करता है जो जल को जड़ों में उपस्थित जाइलम कोशिकाओं द्वारा खींचता है। अतः वाष्पोत्सर्जन  जल के अवशोषण एवं जड़ से पत्तियों तक जल तथा उसमें विलेय खनिज लवणों के उपरिमुखी गति में सहायक है। जल के परिवहन में रात्रि के समय मूल दाब तथा दिन में रंध्रों के खुले होने पर वाष्पोत्सर्जन कर्षण, जाइलम में जल की गति के लिए मुख्य प्रेरक बल है।
  32. उत्सर्जी उत्पाद से छुटकारा पाने के लिए पादप किन विधयों का उपयोग करते हैं।
    पौधों द्वारा उत्पन्न प्रमुख अपशिष्ट उत्पाद कार्बन डाइऑक्‍साइड, ,ऑक्सीजन, जल वाष्प, गोंद और रेजिन होते हैं। जिनका उत्सर्जन निम्न प्रकार से होता है
    (I) पौधों में श्वसन और प्रकाशसंश्लेषण के गैसीय अपशेषों ( कार्बन डाइऑक्साइड, जल वाष्प और ऑक्सीजन ) को पत्तियों में रंध्रों और तनों में वातरंध्रों द्वारा निकाला जाता है
    (II) कुछ पौधों में अपशिष्ट उत्पाद पौधों की पत्तियों, छालों, तथा फलों में संचित होते हैं | पौधे पत्तियों को झाड़कर, छालों को उतारकर, और फलों को गिराकर इन अपशेषों से छुटकारा पा लेते हैं।
    (III) पौधे, गोंद और रेजिन के रूप में उन्हें स्रावित करके अपशेषों से छुटकारा पा लेते हैं।
    (IV) पौधे कुछ अपशिष्ट पदार्थों को अपने आसपास की मृदा में उत्सर्जित करते हैं।
  33. प्रकाशसंश्लेषण के लिए आवश्यक परिस्थतियाँ क्या है  
    (1) सूर्य का प्रकाश- प्रकाशसंश्लेषण की अभिक्रिया हेतु ऊर्जा सूर्य के प्रकाश से ही प्राप्त होती है। सूर्य द्वारा प्रदत्त ऊर्जा का परिवर्तन हरे पौधों रासायनिक ऊर्जा में करते है।
    (2) पर्णहरित या क्लोरोफिल - पत्ती के अनुप्रस्थ काट में हरे रंग के बिंदु दिखाई देते है जिन्हें क्लोरोफिल या क्लोरोप्लास्ट कहते है  प्रकाशसंश्लेषण प्रक्रिया केवल क्लोरोफिल की मौजूदगी में ही संभव है 
    (3) जल- स्थलीय पौधे प्रकाशसंश्लेषण  लिए आवश्यक जल की पूर्ति जड़ों द्वारा मिट्टी में उपस्थित जल  अवशोषण से करते हैं। साथ ही मिट्टी में उपस्थित नाइट्रोजन, फॉस्पफोरस, लोहा तथा मैग्नीशियम आदि खनिज लवणों का अवशोषण भी पौधे द्वारा करते है
    (4) कार्बन डाइऑक्साइड-  पौधे की पत्ती की सतह पर सूक्ष्म छिद्र पाए जाते हैं। जिन्हें रंध्र ( स्टोमेटा) कहते है प्रकाशसंश्लेषण लिए गैसों का आदान-प्रदान इन्हीं रंध्रों द्वारा होता है।
  34. ग्लूकोज के ऑक्सीकरण से भिन्न जीवों में ऊर्जा प्राप्त करने के लिए विभिन्न पथ क्या हैं
    सर्वप्रथम छः कार्बन वाले अणु ग्लूकोज का तीन कार्बन वाले अणु पायरुवेट में विखंडन होता है यह प्रक्रम कोशिकाद्रव्य में होता है। इसके आगे तीन परिस्थितियां हो सकती है 
    1. वायु (ऑक्सीजन) की अनुपस्थिति में किण्वन के समय यीस्ट में पायरुवेट का विखंडन इथेनॉल तथा कार्बन डाइऑक्साइड में हो सकता है। एवं उर्जा मुक्त होती है यह प्रक्रम वायु (ऑक्सीजन) की अनुपस्थिति में होता है अतः इसे अवायवीय श्वसन कहते हैं।
    2. वायु (ऑक्सीजन) की उपस्थिति में माइटोकॉन्ड्रिया पायरुवेट का विखंडन ऑक्सीजन का उपयोग करके माइटोकॉन्ड्रिया में होता है। यह प्रक्रम तीन कार्बन वाले पायरुवेट के अणु को विखंडन कार्बन डाइऑक्साइड व जल में होता है एवं उर्जा मुक्त होती है यह प्रक्रम वायु (ऑक्सीजन) की उपस्थिति में होता है, अतः इसे वायवीय श्वसन कहते है। वायवीय श्वसन में ऊर्जा का मोचन अवायवीय श्वसन की अपेक्षा बहुत अधिक होता है।
    3. कभी-कभी जब हमारी पेशी कोशिकाओं में ऑक्सीजन का अभाव हो जाता है, पायरुवेट एक अन्य तीन कार्बन वाले अणु लैक्टिक अम्ल में परिवर्तित हो जाता है। लैक्टिक अम्ल का निर्माण होना क्रैम्प का कारण हो सकता है
  35. अमीबा में पोषण विधि का वर्णन कीजिए 
    अमीबा एक कोशिकीय प्राणी है। अमीबा भोजन के रूप में बहुत छोटे (सूक्ष्म) पौधों और प्राणियों को खाता है अमीबा द्वारा भोजन ग्रहण करने की प्रक्रिया भक्षकाणु (फैगोसाइटोसिस) क्रिया कहलाती है। अमीबा में भोजन के अन्तर्ग्रण के लिए मुँह नहीं होता है। जब भोजनकण अमीबा के नजदीक आता हैतो यह कूटपादों (अँगुली जैसे अस्थायी प्रवर्ध) द्वारा भोजन कण को चारों ओर से घेर लेता है ये कूटपाद संगलित होकर अमीबा के भीतर खाद्य रिक्तिका बनाते हैं खाद्य रिक्तिका के अंदर पाचक एन्‍जाइमों की सहायता से जटिल पदार्थों का सरल पदार्थों में विघटन किया जाता है अम्रीबा की भोजन रिक्तिका में उपस्थित पचा हुआ भोजन विसरण द्वारा अमीबा कोशिका के कोशिकाद्रव्य में सीधे अवशोषित हो जाता है भोजन के अवशोषण के बादभोजन रिक्तिका समाप्त हो जाती है। भोजन के अपचित अंश को बाहर निकालने के लिए अमीबा में कोई विशेष अंग नहीं होता है जब अमीबा के भीतर पर्याप्त मात्रा में अपचित भोजन जमा हो जाता हैतो किसी भी स्थान पर उसकी कोशिका झिल्ली एकाएक फट जाती है और अपचित भोजन को अमीबा के शरीर के बाहर निकाल दिया जाता है
    चित्र 
  36. स्वयंपोषी पोषण तथा विषमपोषी पोषण में क्या अंतर है?
    1. स्वयंपोषी पोषण, पोषण की वह विधि है जिसमें जीव प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा स्वयं अपना भोजन बनाते है जबकि विषमपोषी पोषण, पोषण की वह विधि है जिसमें जीव अपना भोजन स्वयं नहीं बनाते है और भोजन दूसरे जीवों से प्राप्त करते है 
    2. स्वयंपोषी पोषण में हरितलवक(क्लोरोफिल) की आवश्यकता होती है जबकि विषमपोषी में हरितलवक (क्लोरोफिल) की आवश्यकता नहीं होती है 
    3. स्वयंपोषी पोषण में क्लोरोफिल व सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में वायुमंडल से कार्बन डाइऑक्साइड तथा मिट्टी से अवशोषित जल द्वारा कार्बोहाइड्रेट का निर्माण करते हैं।जबकि विषमपोषी पोषण में जीव पौधों द्वारा बना बनाया भोजन ग्रहण करते है 
    4. सभी हरे पोधे, नील हरित शैवाल एवं प्रकाश संश्लेषी जीवाणु आदि स्वयंपोषी पोषण अपनाते है जबकि सभी जंतु, कवक, कुछ जीवाणु व परजीवी विषमपोषी पोषण अपनाते है 
  37. वृक्काणु (नेप्रफॉन) की रचना तथा क्रियाविधि (मानव में मूत्र निर्माण) की प्रक्रिया समझाइए
    वृक्काणु या नेफ्रोन वृक्क की कार्यात्मक इकाई है  प्रत्येक नेफ्रॉन में एक कीपनुमा संंरचना पायी जाती है जिसे बोमेन संपुटकहते हैं बोमेन संपुट में पतली रुधिर कोशिकाओं का कोशिकागुच्छ पाया जाता है जिसे ग्लौमेरुलस कहते हैं बोमन संपुट के निचले हिस्से से एक नलिका निकलती है जिसे वृक्क नलिका कहते है इसके तीन भाग होतेे हैं  समीपस्थ नलिका, हेनले लूप व दूरस्थ नलिका 
    चित्र 
    मानव में मूत्र निर्माण की प्रक्रिया
    1.छानना या परानिस्यंदन – जब युरियायुक्त असुद्ध रक्त अभीवाही धमनी द्वारा कोशिकगुच्छ में प्रवेश करता है कोशिकगुच्छ  रक्त को छनता है इस दौरान रूधिर में उपस्थित पदार्थ जैसे ग्लुकोज, लवण, अमीनो अम्ल, जल, तथा यूरिया, इत्यादि बोमन सम्पुट में चले जाते हैं
    2.चयनात्मक पुनःअवशोषण - बोमन सम्पुट से छनित वृक नलिका में पहुंचता है यहां छनित में से ग्लुकोज, लवण, जल व अमीनो अम्ल( 99%) का पुनः अवशोषण होता है केवल अपशिष्ट पदार्थ यूरिया, कुछ अवांछित लवण तथा अतिरिक्त जल नलिका में रह जाते हैं । तथा रक्त ग्लोमेरुलस में से अपवाही धमनी द्वारा बाहर निकल जाता है
    3.स्रवण- वृक्कनलिका की नलिका में शेष बचा छनित अब मूत्र कहलाता है प्रत्येक वृक्क में बनने वाला मूत्र एक लंबी नलिका, मूत्रावाहिनी द्वारा मूत्राशय मे चला जाता है मूत्राशय में, मूत्र को कुछ समय के लिए संग्रह किया जाता है और अंत में मूत्रमार्ग द्वारा शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है।
  38. उत्सर्जन तंत्र का सचित्र वर्णन कीजिए 
    मानव उत्सर्जन तंत्र के निम्नलिखित भाग होते हैं
    1.वृक्क- वृक्क उदर में रीढ़ की हड्डी के दोनों ओर स्थित होते हैं। वृक्क मानव का मुख्य उत्सर्जी अंग है  वृक्क के  दो भाग होते हैं बाहरी भाग को कोर्टेक्स और भीतरी भाग को मेडुला कहते हैं प्रत्येक वृृृक्क लाखों उत्सर्जन इकाइयों से मिलकर बना होता है जिन्हें वृक्काणु (नेफ्रॉन) कहते हैं 
    2.मूत्रवाहिनी- प्रत्येक वृक्क  से एक लम्बी तथा संकरी वाहिनी निकलती है जिसे मूत्रवाहिनी (Ureter) कहते हैं। दोनों ओर की मूत्रवाहिनियाँ मूत्राशय में खुलती है 
    3.मूत्राशय- यह एक थैलेनुमा संरचना होती है जिसमें दोनों ओर से मूत्र वाहिनियां आकर खुलती है मूत्राशय में मूत्र एकत्रित होता है 
    4. मूत्रमार्ग- मूत्र मार्ग- यह एक  पेशीय नलिका  होती हे जो मूत्राशय से निकल कर स्खलन वाहिनी से मिल कर मूत्र जनन नलिका बनाती है। मूत्र मार्ग द्वारा शुक्राणु एवं मूत्र दोनों ही बाहर निकलते हैं
  39. मानव ह्रदय का सचित्र वर्णन कीजिए
    मानव हृदय पेशीय ऊतको से बना होता है तथा दोहोरी परत केेे झिल्लीमय आवरण से घिरा रहता है जिसे हृदयावरण कहते हैं इसमें ह्रदयावरण द्रव्य भरा रहता है जो हृदय की बाह्य आघातों से रक्षा करता है रुधिर को ऑक्सीजन व कार्बन डाइऑक्साइड दोनों का ही वहन करना होता है अतः ऑक्सीजन युक्त रुधिर को कार्बन डाइऑक्साइड युक्त रुधिर से मिलने को रोकने के लिए हृदय चार कोष्ठों में बँटा होता है। ऊपरी  दो छोटे कक्ष आलिंद कहलाते हैं तथा निचले दो बड़े कक्ष निलय कहलाते हैं लंबवत रूप से हृदय के दाएं भाग में दायां आलिंद व दायां निलय तथा बाएं भाग में  बायां आलिन्द व बायाँ निलय पाया जाता है बाएं आलिंद एवं बाएं निलय के बीच में द्विकपर्दी वाल्व पाया जाता है  दाएं आलिंद और निलय के बीच में एक त्रिकपर्दी वाल्व पाया जाता है  हैं ये वाल्व रुधिर को विपरीत दिशा में जाने से रोकते हैं अलिंद की अपेक्षा निलय की पेशीय भित्ति मोटी होती है क्योंकि निलय को पूरे शरीर में रुधिर भेजना होता है। जब अलिंद या निलय संकुचित होते हैं तो वाल्व उलटी दिशा में रुधिर प्रवाह को रोकते हैं।
  40. श्वसन तंत्र का सचित्र वर्णन कीजिए 
    मानव श्वसन तंत्र को निम्न भागों में विभाजित किया जा सकता है
    1.नासिका- नासिका एक जोड़ी नासा द्वार से शुरू होती है दोनों नासा द्वारा एक पतली हड्डी एवं झिल्ली से पृथक होते हैं नासिका गुहा में महीन बाल एवं श्लेष्मा पाया जाता है जो वायु के साथ आए धूल के कण, परागकणों एवं अन्य अशुद्धियों को फेफड़ों में जाने से रोक लेते हैं श्वास सामान्यता नासिका द्वारा लिया जाता है परंतु आवश्यकता पड़ने पर मुख द्वारा भी श्वास लिया जा सकता है अतः मुख्य श्वसन तंत्र में द्वितीयक अंग के रूप में कार्य करता है
    2.ग्रसनी- ग्रसनी एक कीपनुमा संरचना है जो तीनभागों में विभक्त होती है  नासाग्रसनी, मुखग्रसनी एवं कंठ ग्रसनी। नासिका गुहा का पृष्ठ भाग नासा ग्रसनी में खुलता है वायु नासिका गुहा से गुजरने केे पश्चात नासाग्रसनी से होकर मुख ग्रसनी में पहुंचती है मुख से ली गई वायु सीधे मुख ग्रसनी में पहुंचती है मुखग्रसनी से वायु कंठ ग्रसनी से होकर श्वास नली में पहुंचती है
    3.श्वास नली- श्वास नली  C आकार के उपास्थि छलो से निर्मित एक नलिका होती है ये उपास्थि छले श्वास नली को पिचकने नहीं देते है  वक्ष गुहा में जाकर श्वास नली दो शाखाओं में विभाजित हो  जाती है तथा दोनों ओर के फेफड़ों में प्रविष्ट कर जाती है इन शाखाओं को श्वसनी  कहते हैं
    4.फेफड़े- मध्यपट के ऊपर वक्षगुहा में एक जोड़ी फेंफड़े पाए जाते हैं बायां फेफड़ा दो खंडों तथा दांया फेफड़ा तीन खंडों में विभाजित होता है प्रत्येक श्वसनी अपनी ओर के फेफड़े में प्रवेश करके अनेक शाखाओं में बंट जाती है। इन शाखाओं को श्वसनिकाएं  कहते हैं। इन शाखाओं के अंतिम सिरे कुपिकाओं का निर्माण करते हैं इन कुपिकाओं में गैसों का आदान प्रदान होता है
    5.डायफ्राम-डायफ्राम कंकाल पेशियों से निर्मित एक पतली चादरनुमा संरचना है जब हम श्वास लेते हैं,तो हमारी पसलियाँ ऊपर उठती हैं औ डायफ्राम संकुचित हो पेट की गुहा में नीचे की ओर खींच लिया जाता है इसके परिणामस्वरूप वक्षगुहिका बड़ी हो जाती है। इस कारण वायु फुफ्फुस के अंदर चूस ली जाती है तथा जब हम श्वास बाहर निकालते हैं,तो डायफ्राम शिथिल होकर वक्ष गुहा में ऊपर की ओर खींच लिया जाता है
  41. मानव आहारनाल/पाचन तंत्र का सचित्र वर्णन कीजिए
    पाचन तंत्र के सभी अंग मिलकर आहारनाल का निर्माण करते हैं जो मुख से शुरू होकर मलद्वार तक जाती है आहारनाल सामान्यता 8 से 10 मीटर लंबी होती है आहारनाल के निम्न भाग होते हैं
    1.मुख- मुख एक कटोरे नुमा आकृति मुख-गुहा में खुलता है जिसमें ऊपर कठोर व नीचे कोमल तालू पाए जाते हैं मुख में चारों ओर गति कर सकने वाली मांसल जिव्हा पाई जाती है मुंह को खोलने व बंद करने तथा भोजन पकड़ने हेतु मुख में दो मांशल होठ पाए जाते हैं मुख के ऊपरी तथा निचले जबड़ो में 16-16 दांत पाए जाते हैं जो भोजन को कुतरने, काटने, चीरने, फाड़ने व चबाने का काम करते हैं मुख गुहा में तीन जोड़ी लार ग्रंथियां पाई जाती है  लार ग्रंथियां लार (लालारस) का स्रावण करती है लार भोजन को चिकना व घुलनशील बनाती है तथा भोजन को निगलने में सहायता करती है लार में टायलिन(एमाइलेज) एंजाइम पाया जाता है जो भोजन में उपस्थित स्टार्च को शर्करा मे परिवर्तन कर मुख में पाचन शुरु करती है
    2.ग्रसिका या इसोफेगस -  इसका प्रमुख कार्य भोजन को मुखगुहा से आमाशय तक पहुंचाना है। इसोफेगस के ऊपरी भाग में ऊत्तको का एक पल्ला पाया जाता है जिसे घाटी ढक्कन या एपिग्लोटिस या घाटी ढक्कन कहते हैं यह पल्ला भोजन निगलते समय श्वासनली को बंद कर देता है और भोजन को श्वास नली में जाने से रोकता है
    3.आमाशय- आमाशय  एक थैलेनुमा संरचना होती है आमाशय की भित्ति में जठर ग्रंथियां पाई जाती हैं। जो जठर रस का स्रावण करती है जठर रस (आमाशय रस) में हाइड्रोक्लोरिक अम्ल, प्रोटीन पाचक एंजाइम तथा श्लेष्मा पाया जाता है हाइड्रोक्लोरिक अम्ल भोजन को अम्लीय बनाता है हाइड्रोक्लोरिक अम्ल ही निष्क्रिय एन्जाइम पेप्सीनोजन को सक्रिय पेप्सिन में बदलता है श्लेष्मा अमाशय की दीवारों को हाइड्रोक्लोरिक अम्ल से बचाता है
    4. क्षुद्रांत्र- क्षुद्रांत्र आहरनाल का सबसे लंबा भाग है सामान्यतः छोटी आंत की लंबाई 7 मीटर होती है भोजन का सर्वाधिक पाचन और अवशोषण छोटी आंत में ही होता है क्षुद्रांत्र कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन तथा वसा के पूर्ण पाचन का स्थल है।  घास खाने वाले शाकाहारी जंतुओं को सेल्युलोज पचाने के लिए लंबी क्षुद्रांत्र की आवश्यकता होती है। जबकि मांस का पाचन सरल है अतः बाघ जैसे मांसाहारी जंतुओं की क्षुद्रांत्र छोटी होती है। क्षुद्रांत्र की आंतरिक दीवारों पर अंगुलियों के समान संरचनाएँ पायी जाती हैं जिन्हें दीर्घरोम कहते हैं। ये दीर्घरोम आँत की दीवार की अवशोषण सतह को बढ़ाते हैं। आमाशय से भोजन जब क्षुद्रांत्र में प्रवेश करता है। तो यह अम्लीय होता है अग्न्याशयिक एंजाइमों की क्रिया के लिए उसे क्षारीय बनाया जाता है। यकृत से स्रावित पित्तरस भोजन को क्षारीय बनता है इसके अलावा यकृत पित्त रस वसा का पायसीकरण करता है अर्थात वसा की बड़ी-बड़ी बूंदों को छोटी-छोटी गोलिकाओ में बदलता है जिससे वसा पर एंजाइम की क्रियाशीलता बढ़ जाती है। अग्न्याशय अग्न्याशयिक रस का स्रावण करता है जिसमें प्रोटीन के पाचन के लिए ट्रिप्सिन, इमल्सीकृत वसा का पाचन करने के लिए लाइपेज तथा कार्बोहाइड्रेट के पाचन के लिए एमाइलेज एंजाइम पाया जाता है
    क्षुद्रांत्र की भित्ति आंत्र रस स्रावित करती है। इसमें उपस्थित एंजाइम अंत में प्रोटीन को अमीनो अम्ल, जटिल कार्बोहाइड्रेट को ग्लुकोज़ में तथा वसा को वसा अम्ल तथा ग्लिसरॉल में परिवर्तित कर देते हैं। पाचित भोजन को क्षुद्रांत्र की भित्ति अवशोषित कर लेती है।
    5. बृहदांत्र - क्षुद्रांत्र  का अंतिम भाग बृहदांत्र में खुलता है बृहदांत्र में  जल एवं खनिज लवणों का अवशोषण होता  है
    6.मलाशय- मलाशय आहार नाल का अंतिम भाग है मलाशय का अंतिम भाग गुदानाल कहलाता है जो मलद्वार के द्वारा बहार खुलता है गुदानाल में सवर्णी पेशियां पाई जाती है जो अपशिष्ट पदार्थों के उत्सर्जन का नियंत्रण करती है







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