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6.भू-आकृतियाँ तथा उनका विकास

पृथ्वी के धरातल का निर्माण करने वाले पदार्थों पर अपक्षय की प्रक्रिया के पश्चात् भू-आकृतिक कारक जैसे- प्रवाहित जल, भूमिगत जल, वायु, हिमनद तथा तरंग अपरदन करते हैं। अपरदन धरातलीय स्वरूप को बदल देता है। निक्षेपण प्रक्रिया अपरदन प्रक्रिया का परिणाम है और निक्षेपण से भी धरातलीय स्वरूप में परिवर्तन आता है।
भू-आकृति - छोटे से मध्यम आकार के भूखंड भू-आकृति कहलाते हैं। बहुत सी संबंधित भू-आकृतियाँ मिलकर भूदृश्य बनाती हैं, जो भूतल के विस्तृत भाग हैं। प्रत्येक भू-आकृति का एक प्रारंभ होताहै। भू-आकृतियों के एक बार बनने के बाद उनके आकार, आकृति व प्रकृति में बदलाव आता है प्रत्येक भू-आकृति के विकास का एक इतिहास है और समय के साथ उसका परिवर्तन हुआ है।
भू-आकृतिक कारक
प्रवाहित जल
आर्द्र प्रदेशों में, जहाँ अत्यधिक वर्षा होती है, प्रवाहित जल सबसे महत्त्वपूर्ण भू-आकृतिक कारक है यह धरातल को नीचा या निम्नीकरण करने का प्रयास करता है। प्रवाहित जल दो रूपों में कार्य करता है-
(1) धरातल पर परत के रूप में फैला हुआ प्रवाह
(2) रैखिक प्रवाह जो घाटियों में नदियों तथा सरिताओं के रूप में प्रवाहित होता है।
प्रवाहित जल द्वारा निर्मित अधिकतर अपरदित स्थलरूप नदियों की युवावस्था से संबंधित हैं। कालांतर में, तेज ढाल लगातार अपरदन के कारण मंद ढाल में परिवर्तित हो जाते हैं और परिणामस्वरूप नदियों का वेग कम हो जाता है, जिससे निक्षेपण आरंभ होता है। जिससे समतल मैदान और डेल्टाओं का निर्माण होता है।
प्रवाहित जल से निर्मित तीन अवस्थाएँ
1. युवावस्था - यह नदी की प्रारम्भिक अवस्था होती है। जलविभाजक अत्यधिक विस्तृत व समतल होते हैं इस अवस्था में नदियाँ मुख्य रूप से अपरदन कार्य करती हैं। निक्षेपण नगण्य होता है। नदियों में जल की मात्रा कम होती है किन्तु ढाल की अधिकता के कारण वेग बहुत अधिक होता है । इस अवस्था में नदियाँ लम्बबत्‌ अपरदन द्वारा घाटियों को गहरा करती जाती हैं। इस अवस्था में नदी V आकार की घाटी, जलप्रपात, क्षिप्रिकाएँ, अध:कर्तित या गभीरभूत विसर्प जैसी भूआकृतियों का निर्माण प्रमुख रूप से करती हैं।
2. प्रौढ़ावस्था - इस अवस्था में नदियों में जल की मात्रा अधिक होती है तथा V आकार की घाटियाँ गहरी होने के साथ चौड़ी होने लगती हैं। अधोमुखी अपरदन की तुलना में पार्शिवक अपरदन बढ़ जाता है। नदी घाटी विस्तृत हो जाती है तथा इसमें नदी विसर्प निर्मित करती हुई प्रवाहित होती है। नदी विसर्प तथा बाढ़ के मैदान इस अवस्था की प्रमुख भू-आकृतियाँ हैं। इस अवस्था में जल प्रपात तथा क्षिप्रिकाएँ पूर्णतया विलुप्त हो जाती हैं।
3. वृद्धावस्था- इस अवस्था में नदी का ढाल अति मन्द होता है तथा उसकी सहायक नदियाँ बहुत कम होती हैं।नदी विसर्प, प्राकृतिक तटबन्ध, गोखुर झील तथा डेल्टा इस अवस्था की प्रमुख भूआकृतियाँ हैं। जल विभाजक सँकरे व समतल होजाते हैं जिनमें झील तथा दलदल मिलते हैं।
अपरदित स्थलरूप
1. घाटियाँ - लम्बाई, चौड़ाई एवं आकृति के आधार पर ये घाटियाँ – V आकार घाटी, गॉर्ज, कैनियन आदि में वर्गीकृत की जासकती हैं।
2. V आकर की घाटी -V आकर की घाटी पर्वतीय भागों में नदी के लम्बवत्‌ अपरदन के कारण बनती है किन्तु धीरे-धीरे नदी में जल की मात्रा और भार कीअधिकता हो जाती है। ऐसी अवस्था में नदी घाटी को गहरा करने के साथ-साथ 'पार्श्वों को भी काटने लगती इससे नदी की घाटी चौड़ी होने लगती है
3. गार्ज- जिन भागों में चट्टानें कठोर होती हैं, वहाँ पर V आकर की घाटी गहरी और संकीर्ण होती हैं। नदी की ऐसी गहरी और संकरी घाटी , जिसके दोनों किनारे खड़े होते हैं,गार्ज कहलाती है गॉर्ज की चौड़ाई इसके तलीय भाग व ऊपरी भाग में लगभग समान होती हैगॉर्ज कठोर चट्टनोंमें बनता है।
4. कैनियन - जब किसी पठारी भाग में चट्टानें आड़ी बिछी हो तो उस स्थान पर बहने वाली नदी की घाटीबहुत गहरी और तंग होती है। ऐसी गहरी तंग घाटी को कैनियन कहा जाता है। एक कैनियन के पार्श्व किनारे खड़ी ढाल वाले होते हैं कैनियन का ऊपरी भाग उसके तलीय भाग की तुलना में चौड़ा होता है। कैनियन का निर्माण प्रायः अवसादी चट्टनों के क्षैतिज स्तरण में पाए जाने से होता है
5. जल गर्तिका - पहाड़ी क्षेत्रों में नदी तल में अपरदित छोटे चट्टानी टुकड़े छोटे गर्त्तों में फंसकर वृत्ताकार रूप में घूमते हैं अवसाद के लगातार घूमने के कारण ये गड्ढे गोलाकार एवं गहरे हो जाते हैं। जिन्हें जलगर्तिका कहते हैं।
6. अवनमित कुंड - जलप्रपात के तल मेंभी एक गहरे व बड़े जलगर्तिका का निर्माण होता है जोजल के ऊँचाई से गिरने व उनमें शिलाखंडों के वृत्ताकार घूमने से निर्मित होते हैं। जलप्रपातों के तल में ऐसे विशाल व गहरे कुंड अवनमित कुंड कहलाते हैं।
7. अधःकर्तित विसर्प या गभीरीभूत विसर्प - मैदानी भागों में नदियाँ ढाल मंद होने के कारण टेढ़े-मेढे मार्गों में साँप को भाँति बल खाती हुई बहती हैं इसलिए इनके द्वारा पार्श्व अपरदन अधिक होता है और सामान्य विसर्प का निर्माण होता है जिनकी चौड़ाई अधिक होती है। दूसरी ओर,तीव्र ढाल वाले चट्टानी भागों में नदियाँ पार्श्ब अपरदन के बजाय अधोतलअपरदन अथवा गहराई में अपरदन करती हैं इसलिए जो विसर्प बनते हैं, वे गहरे होते हैं। इन विसर्पों को अधःकर्तित विसर्प या गभीरीभूत विसर्प कहते है जिन्हें गार्ज या कैनियन के रूप में देखा जा सकता है
8. नदी वेदिकाएँ - जब नदी में किसी कारणवश पुनर्योवन की अवस्था आ जाती है तो नदी अपनीघाटी को पुनः गहरा करने लगती है। अतः नदी अपनी पुरानी चौड़ी घाटी के अन्तर्गत नवीन एवं संकरी घाटी का निर्माण करने लगाती है जिनका आकार सीढ़ीनुमा होता है नदी वेदिकाएँ मुख्यतः अपरदित स्थलरूप हैं
जब नदी वेदिकाएँ नदी के दोनों किनारों पर समान ऊँचाई पर मिलती है तो इन्हें युग्मित वेदिकाएँ कहा जाता है और नदी के दोनों किनारों पर उपस्थित वेदिकाओं की ऊँचाई में भिन्‍लता मिलती है तो उन्हे अयुग्मित वेदिकाएँ कहा जाता है
निक्षेपित स्थलरूप 
1. जलोढ़ पंख - पर्वतीय क्षेत्रों से जैसे ही नदी मैदानी क्षेत्रों में प्रवेश करती है तो नदी की प्रवाह गति मन्द पड़ जाती है, जिसके कारण उसकी अपवाह क्षमता भी कम रह जाती है। अतः नदी भारी पदार्थों को अपने साथ प्रवाहित करने में असमर्थ रहती है और उनका निक्षेप करना प्रारम्भ कर देती है। पर्वतपदीय भागों में नदी बजरी, पत्थर, कंकड़, बालू, मिट्टी आदि पदार्थों का निक्षेपण शंकु के रूप में करती है। इनके बीच से होकर अनेक छोटी-छोटी धाराएँ निकल जाती हैं। इस प्रकार के अनेक शंकु मिलकर पंखे जैसी आकृति का निर्माण करते हैं जिससे उन्हें जलोढ़ पंख का नाम दिया जाता है।
2.  डेल्टा- नदी समुद्र में मिलने से पूर्व अपने साथ लाये अवसादों को जमा करती रहती है, जिससे समुद्र के निकट का क्षेत्र समतल हो जाता है। यदि नदी में अवसाद की मात्रा अधिक है तो नदी कई धाराओं में बंटकर त्रिकोणाकार डेल्टा का निर्माण करती है।
3. बाढ़-मैदान -बाढ़ के मैदान नदी निक्षेपण के मुख्य स्थलरूप हैं। जब नदी तीव्र ढाल से मंद ढाल में प्रवेश करती है तो बड़े आकार के पदार्थ पहले ही निक्षेपित हो जाते हैं। इसी प्रकार बारीक पदार्थ जैसे रेत, चीका मिट्टी और गाद आदि अपेक्षाकृत मंद ढालों पर बहने वाली कम वेग वाली जल धाराओं में मिलते हैं और जब बाढ़ आने पर पानी तटों पर फैलता है तो ये उस तल पर जमा हो जाते हैं। नदी निक्षेप से बने ऐसे तल सक्रिय बाढ़ के मैदान कहलाते हैं। 
तलों से ऊँचाई पर बने तटों को असक्रिय बाढ़ के मैदान कहते हैं। असक्रिय बाढ़ के मैदान, जो तटों के ऊपर  होते हैं, मुख्यतः दो प्रकार के निक्षेपों से बने होते हैं- बाढ़ निक्षेप व सरिता निक्षेप। 
मैदानी भागों में नदियाँ प्रायः क्षैतिज दिशा में अपना मार्ग बदलती हैं और कटा हुआ मार्ग धीरे-धीरे भर जाता है। बाढ़ मैदानों के ऐसे क्षेत्र, जो नदियों के कटे हुए या छूटे हुए भाग हैं उनमें स्थूल पदार्थों के जमाव होते हैं। ऐसे जमाव, जो बाढ़ के पानी वेफ फैलने से बनते हैं
अपेक्षाकृत महीन कणों- चिकनी मिट्टी, गाद आदि के होते हैं। ऐसे बाढ़ मैदान, जो डेल्टाओं में बनते हैं, उन्हें डेल्टा मैदान कहते हैं।
4. प्राकृतिक तटबंध तथा विसर्पी रोधिका
प्राकृतिक तटबंध और विसर्पी रोधिका आदि कुछ महत्त्वपूर्ण स्थलरूप हैं जो बाढ़ के मैदानों से संबंधित हैं। प्राकृतिक तटबंध बड़ी नदियों के किनारे पर पाए जाते हैं। ये तटबंध नदियों के पार्श्वों में स्थूल पदार्थों के रैखिक, निम्न वसमानांतर कटक के रूप में पाये जाते हैं, जो कई स्थानों पर कटे हुए होते हैं।
नदी रोधिकाएँ या विसर्पी रोधिकाएँ बड़ी नदी विसर्पों के अवतल ढालों पर पाई जाती हैं और ये रोधिकाएँ प्रवाहित जल द्वारा लाए गए तलछटों के नदी किनारों पर निक्षेपण के कारण बनी हैं । इनकी चौड़ाई व परिच्छेदिका लगभग एक समान होती है और इनके अवसाद मिश्रित आकार के होते हैं।
5. नदी विसर्प - विस्तृत बाढ़ व डेल्टा मैदानों में नदियाँ शायद ही सीधे मार्गों में बहती होंगी। बाढ़ व डेल्टाई मैदानों पर लूप जैसे चैनल प्रारूप विकसित होते हैं - जिन्हें विसर्प कहा जाता है। विसर्प एक स्थलरूप न होकर एक प्रकार का चैनल प्रारूप है । नदी विसर्प के निर्मित होने के कारण निम्नलिखित हैं :
(i) मंद ढाल पर बहते जल में तटों पर क्षैतिज या पार्श्विक कटाव करने की प्रवृत्ति का होना
(ii) तटों पर जलोढ़ का अनियमित व असंगठित जमाव 
(iii) प्रवाहित जल का कोरिआलिस प्रभाव से विक्षेपण
जब चैनल की ढाल प्रवणता अत्यधिक मंद हो जाती है तो नदी में पानी का प्रवाह धीमा हो जाता तथा पाश्र्वों का कटाव अधिक होता है। नदी तटों पर थोड़ी सी अनियमितताएँ भी, धीरे-धीरे मोड़ों के रूप में परिवर्तित हो जाती हैं। यह मोड़ नदी के अंदरूनी भाग में जलोढ़ जमाव के कारण गहरे हो जाते हैं और बाहरी किनारा अपरदित होता रहता है। अगर अपरदन, निक्षेपण तथा निम्न कटाव न हो तो विसर्प की प्रवृत्ति कम हो जाती है। प्रायः बड़ी नदियों के विसर्प में अवतल किनारों पर सक्रिय निक्षेपण होते हैं और उत्तल किनारों पर अधोमुखी कटाव होते हैं। अवतल किनारे कटाव किनारों के रूप में भी जाने जाते हैं जो अधिक अपरदन से तीव्र कगार के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। उत्तल किनारों का ढाल मंद होता है और विसर्पों के गहरे छल्ले के आकार में विकसित हो जाने पर ये अंदरूनी भागों पर अपरदन के कारण कट जाते हैं और गोखुर झील बन जाती है।
गोखुर झील 
मैदानी भागों में नदियों का वेग मन्द हो जाता है तथा प्रवाह के लिए नदियाँ ढालू मार्ग कोमल चट्टानों को खोजती रहती हैं। इसी स्वभाव के कारण नदी की धारा में जगह-जगह घुमाव या मोड़ पड़ जाते हैं, जिन्हें विसर्प या नदी मोड़ कहते हैं। प्रारम्भ में नदी द्वारा निर्मित मोड़ छोटे-छोटे होते हैं परन्तु धीरे-धीरे इनका आकार बढ़कर घुमावदार होता जाता है। जब ये विसर्प बहुत विशाल और घुमावदार हो जाते हैं, तब बाढ़ के समय नदी का तेजी से बहता हुआ जल घूमकर बहने के स्थान पर सीधे ही मोड़ की संकरी ग्रीवा को काटकर प्रवाहित होने लगता है तथा नदी को मोड़ मुख्य धारा से कटकर अलग हो जाता है। इस प्रकार उस पृथक् हुए मोड़ से एक झील का निर्माण होता है। इस झील की आकृति गाय के खुर जैसी होती है इसलिए नदी मोड़ एवं जलधारा की तीव्र गति से बनी यह झील गोखुर झील कहलाती है।
भौम जल
वह जल जो धरातल के नीचे मिट्टी और आधार शैलों में पाया जाता है,' भूमिगत जल' कहलाता है। चूना पत्थर प्रधान चट्टानों में भूमिगत जल सरलता से नीचे प्रवेश कर जाता है क्योंकि ये चट्टानें जल के लिए पारगम्य व छिद्रयुक्त होती हैं। जल के सम्पर्क में आने से ये चट्टानें रासायनिक प्रक्रिया द्वारा आसानी से घुल जाती हैं और अपरदन प्रारम्भ हो जाता है। चूना प्रदेशों में भूमिगत जल अपरदन व निक्षेपण के कारक के रूप में अधिक सक्रिय होता है तथा इसके द्वारा अनेक भूआकृतियों का निर्माण होता है जिन्हें कार्स्ट स्थलाकृति कहा जाता है।
अपरदनात्मक स्थलाकृतियाँ
घोलरंध्र , लैपीज और चूना-पत्थर चबूतरे 
घोल रंध्र एक प्रकार के छिद्र होते हैं जिनका निर्माण चूना-पत्थर चट्टानों के तल पर घुलन क्रिया द्वारा होता है ये ऊपर से वृत्ताकार व नीचे कीप की आकृति के होते हैं 
घोल रन्ध्र परस्पर मिलकर बड़े छिद्रों का निर्माण करते हैं, जिन्हें विलयन रंध्र कहते हैं। 
अगर इन घोलरंध्रों के नीचे बनी कंदराओं की छत ध्वस्त हो जाए तो ये बड़े छिद्र ध्वस्त या निपातरंध्र के नाम से जाने जाते हैं। 
अधिकतर घोलरंध्र ऊपर से अपरदित पदार्थों के जमने से ढ़क जाते हैं और उथले जल कुंड जैसे प्रतीत होते हैं।
ध्वस्त घोल रंध्रों को डोलाइन भी कहाजाता है। 
सामान्यतः धरातलीय प्रवाहित जल घोलरंध्रों व विलयन रंध्रों से गुजरता हुआ अन्तभौमि नदी केरूप में विलीन हो जाता है और फिर कुछ दूरी के पश्चात् किसी कंदरा से भूमिगत नदी के रूप में फिर निकल आता है। जब घोलरंध्र व डोलाइन इन कंदराओं की छत के गिरने से या पदार्थों के स्खलन द्वारा आपस में मिल जाते हैं, तो लंबी, तंग तथा विस्तृत खाइयाँ बनती हैं जिन्हें घाटी रंध्र या युवाला कहते हैं। 
धीरे-धीरे चूनायुक्त चट्टानों के अधिकतर भाग इन गर्तों व खाइयों के हवाले हो जाता है और पूरे क्षेत्रा में अत्यधिक अनियमित, पतले व नुकीले कटक आदि रह जाते हैं, जिन्हें लेपीस कहतेहैं। इन कटकों या लेपीस का निर्माण चट्टानों की संधियों में भिन्न घुलन प्रक्रियाओं द्वारा होता है। कभी-कभी लेपीश के ये विस्तृत क्षेत्र समतल चूनायुक्त चबूतरों में परिवर्तित हो जाते हैं।
कंदराएँ - ऐसे प्रदेश जहाँ चट्टानों के एकांतर संस्तर हों और इनके बीच में अगर चूना पत्थर व डोलोमाइट चट्टानें हों वहां पानी दरारों व संधियों से रिसकर शैल संस्तरण के साथ क्षैतिज अवस्था में बहता है। इसी तल संस्तरण के सहारे चूना चट्टानें घुलती हैं और लंबे एवं तंग विस्तृत रिक्त स्थान बनते हैं जिन्हें कंदराएँ कहा जाता है। प्रायः कंदराओं का एक खुला मुख होता है जिससे कंदरा सरिताएँ बाहर निकलती हैं। ऐसी कंदराएँ जिनके दोनों सिरे खुले हों, उन्हें सुरंग कहते हैं।


निक्षेपित स्थलरूप
अधिकतर निक्षेपित स्थलरूप कंदराओं के भीतर ही निर्मित होते हैं। चूना पत्थर चट्टानों में मुख्य रसायन कैल्शियम कार्बोनेट है जो कार्बनयुक्त जल में शीघ्रता से घुल जाता है। जब इस जल का वाष्पीकरण होता है तो घुले हुए कैल्शियम कार्बोनेट का निक्षेपण हो जाता है या जब चट्टानों की छत से जल से वाष्पीकरण के साथ कार्बन डाईआक्साइड गैस मुक्त हो जाती है तो कैल्शियम कार्बोनेट के चट्टानी धरातल पर टपकने से निक्षेपण हो जाता है।
1. स्टेलेक्टाइट (Stalactite)- जब कन्दरा की ऊपरी छत से चूना मिश्रित जल रिस-रिसकर नीचे फर्श पर टपकता है तो इस जल की कार्बन डाइ ऑक्साइड उड़ जाती है और जल में घुला कैल्सियम कार्बोनेट छत पर अन्दर की ओर जम जाता है। प्रायः ये आधार पर या कंदरा की छत के पास मोटे होते हैं और अंत के छोर पर पतले होते जाते हैं।  इन लटकते हुए स्तम्भों को स्टेलेक्टाइट कहा जाता है। 
2. स्टेलेग्माइट (Stalagmite)- कन्दरा की छत से रिसने वाले जल की मात्रा यदि अधिक होती है तो वह सीधे टपककर कन्दरा के फर्श पर निक्षेपित होना प्रारम्भ हो जाता है। धीरे-धीरे निक्षेप द्वारा इन स्तम्भों की ऊँचाई ऊपर की ओर बढ़ने लगती है। इस प्रकार के स्तम्भों को स्टेलेग्माइट कहा जाता है। फर्श की ओर ये मोटे तथा विस्तृत होते हैं, परन्तु ऊपर की ओर पतले तथा ‘नुकीले होते हैं। कन्दरा स्तम्भ
3. कन्दरा स्तम्भ (Cave- Pillars)- स्टेलेग्माइट की अपेक्षा स्टेलेक्टाइट अधिक लम्बे होते हैं। निरन्तर बढ़ते जाने के कारण स्टेलेक्टाइट कन्दरा के फर्श पर पहुँच जाता है। इस प्रकार के स्तम्भ को कन्दरा-स्तम्भ कहते हैं। कभी-कभी स्टेलेक्टाइट एवं स्टेलेग्माइट दोनों के एक-दूसरे की ओर बढ़ने से तथा आपस में मिलने से भी कन्दरा-स्तम्भों का निर्माण हो जाता है।
हिमनद
पृथ्वी पर परत के रूप में हिम प्रवाह या पर्वतीय ढालों से घाटियों में रैखिक प्रवाह के रूप में बहते हिम संहति को हिमनद कहते हैं। 
महाद्वीपीय हिमनद या गिरिपद हिमनद -वे हिमनद जो वृहत् समतल क्षेत्र पर हिम परत के रूप में फैले हुए है
पर्वतीय या घाटी हिमनद - वे हिमनद जो पर्वतीय ढालों में बहते हैं
हिमनद के अपरदित स्थलरूप
सर्क
जब उच्च पर्वतीय भागों से हिम फिसलकर नीचे की ओर आती है तो वह ढालों' पर गहरे गड्ढे बना देती है। धीरे-धीरे ये गड्ढे अपरदन की क्रिया से काफी गहरे तथा चौड़े हो जाते हैं, जिनकी आकृति की तुलना एक सीधी गहरी सीट वाली आराम-कुर्सी से की जाती है जिसकी पीठ तीव्र ढाल वाली होती है तथा तली हल्का अवतल ढाल लिए मिलता है। इन्हें सर्क कहते है 
सर्क की तली पर अवतल ढाल होने से प्राय: एक छोटी झील का निर्माण होता है, जिसे टार्न कहते हैं।
हॉर्न या गिरिशृंग
जब पर्वतीय ढालों में सर्क का कटाव पीछे की ओर होता है, तो गर्त बड़ा हो जाता है अत्यधिक अपरदन से दो सर्को के मध्य एक तीक्ष्ण कटकनुमा आकृति बन जाती है। जिसे हॉर्न या गिरिशृंग कहा जाता है
आल्प्स पर्वत पर सबसे ऊँची चोटी मैटरहॉर्न तथा हिमालय पर्वत की सबसे ऊँची चोटी एवरेस्ट वास्तव में हॉर्न है
अरेत
जब किसी पर्वत श्रेणी की दोनों ओर ढालों पर स्थित हिमानियों से बहुत से सर्क बन जाते है इन सर्कों के शीर्ष पर लगातार अपदरन से इन पर्वत श्रेणियों का आकार कंघीनुमा (आरी के दांतों के सामान) हो जाता है जिन्हें अरेत कहते हैं।
Uआकार की घाटी - पर्वतीय नदियों द्वारा निर्मित V आकार की घाटियों में जब हिमानी बहती है तो हिमानी इन V आकार की घाटियों की तली और पार्श्व को घिसकर व खरोंचकर गहरा और चौड़ा कर देती हैं, जिससे घाटी का आकार U आकार के समान हो जाता है। U आकार की घाटी का तल चौड़ा व किनारे चिकने तथा तीव्र ढाल वाले होते हैं।
लटकती घाटी:  मुख्य हिमनद अपनी'घाटियों को अपनी सहायक हिमनदों की घाटियों की अपेक्षा अधिक गहरा कर देती हैं, जिससे सहायक घाटी मुख्य हिमनद की घाटी की अपेक्षा ऊँची होती हैं। जिस स्थल पर सहायक हिमनद मुख्य हिमनद से मिलते हैं, उस संगम स्थल पर तीत्र ढाल उत्पन्न हो जाताहै और सहायक घाटी की हिम एक लटकती हुईं जीभ बनाकर मुख्य घाटी में गिरती है। जब इन घाटियों से हिम हट जाती है तो ये सहायक ' हिम घाटियाँ' ( संगम स्थल पर) मख्य नदी घाटी में लटकती प्रतीत होती हैं।
फियोर्ड
उच्च अक्षांशों पर हिमानियाँ समुद्र तट पर पहुंचकर सागर तली को गहरा कर देती है जिससे समुद्र तट अत्यधिक कट फट जाता है समुद्र में डूबी इन गहरी हिमघाटियों या हिमगर्तों में समुद्री जल भर जाता हैउन्हें फियोर्ड कहते हैं।
निक्षेपित स्थलरूप
हिमोढ़
हिमनद द्वारा अपने साथ बहाकर लाये गये शैल पदार्थ या अवसाद जिनका निक्षेप घाटी के विभिन्न भागों में होता है। इन शैल पदार्थों के निक्षेप को हिमोढ़ कहते हैं। हिमोढ़ में गोलाश्म, छोटे-छोटे शैलखंड, बजरी, रेत, मृत्तिका आदि विभिन्न पदार्थ पाये जाते हैं हिमोढ़ प्रायः लम्बे कटक के रूप में संचित होते हैं जिन्हें स्थिति के अनुसार कई श्रेणियों में विभक्त किया जाता है
पार्श्विक हिमोढ़- जब हिमनद के किनारों पर हिमोढ़ का निक्षेप लम्बे एवं संकीर्ण कटक के रूप होता है उसे पार्श्विक हिमोढ़ कहते हैं।
मध्यस्थ हिमोढ़ -परस्पर मिलने वाले दो हिमनदों के मध्य भीतरी पार्श्विक हिमोढ़ों के मिलने से बनाने वाला हिमोढ़ मध्यस्थ हिमोढ़ कहलाता है।
तलस्थ हिमोढ़ - हिमनद की तली पर एकत्रित होने वाले शैल पदार्थों को तलस्थ हिमोढ़ कहा जाता है।
अंतस्थ हिमोढ़ - जब हिमनद का अंतिम (छोर) भाग पिघलता है उसके साथ मिश्रित मलबे का निक्षेप हिमनद के अग्र (अंतिम) भाग में होने लगता है इसे अंतस्थ हिमोढ़ कहते हैं।
पार्श्विक हिमोढ़ अंतस्थ हिमोढ़ से मिलकर घोड़े की नाल या अर्धचंद्राकार कटक का निर्माण करते हैं।
एस्कर
हिमानी के पिघलने पर हिमानी जलोढ़ के जमाव से निर्मित लम्बे, संकरे एवं लहरदार कटक को एस्कर कहते हैं। ग्रीष्म ऋतु में हिमनद के पिघलने से जल हिमनद के नीचे एकत्रित होकर बर्फ के नीचे नदी धारा में प्रवाहित होता है। यह जलधारा अपने साथ बड़े गोलाश्म, चट्टानी टुकड़े और छोटा चट्टानी मलबा मलबा बहाकर लाती है जो हिमनद के नीचे इस बर्फ की घाटी में जमा हो जाते हैं। ये बर्फ पिघलने के बाद एक वक्राकार कटक के रूप में मिलतेहैं, जिन्हें एस्कर कहते हैं।
धौत मैदान -हिमानी का जल जब अन्तिम हिमोढ़  से होकर गुजरता है तो अपने साथ उसके हिमोढ़ों को बहा ले जाता है। हिमनद के निकटवर्ती भागों में मोटे-मोटे हिमोढ पत्थर रह जाते हैं जबकि क्रमश: बारीक होता हुआ मलबा हिमनदों से दूर वाले भागों तक बहता जाता है। इस बारीक मलबे के जमाव से हिमानी धौत मैदान का निर्माण होताहै
हिमानी गिरिपद के मैदानों में अथवा महाद्वीपीय हिमनदों से दूर हिमानी-जलोढ़ निक्षेपों के जमाव से निर्मित मैदान हिमानी धौत मैदान कहलाता हैं।
ड्रमलिन
ड्रमलीन हिमनद मृत्तिका के निक्षेप द्वारा निर्मित स्थलरूप है जिनका आकार उल्टी नाव या कटे हुए उल्टे अण्डे के समान होता हैं। ड्रमलीन का हिमनद के मुख की ओर का भाग स्टॉस कहलाता है जो खडे ढाल वाला तथा खुरदरा होता हैं परन्तु दूसरी ओर वाला भाग मन्द ढाल वाला होता हैं।ड्रमलिन हिमनद प्रवाह दिशा को बताते हैं।
तरंग व धाराएँ
तरंगों का तट पर लगातार अवनमन तथा सागरीय तल पर तलछटों के दोलन से अनेक भू-आकृतियों का निर्माण होता है।
तटीय स्थलरूपों के विकास को समझने के लिए तटों को दो भागों में वर्गीकृत किया जाता है
(1) ऊँचे चट्टानी तट - ऊँचे चट्टानी तटों के सहारे तट रेखाएँ अनियमित होती हैं तथा नदियाँ जलमग्न प्रतीत होती हैं। ऊँचे चट्टानी तटों के सहारे तरंगें अवनमित होकर धरातल पर अत्यधिक बल के साथ प्रहार करती है जिससे तटों के सहारे तटीय भृगु तथा तरंग घर्षित चबूतरे बनते हैं इसके अलावा अपरदित पदार्थ सागरीय तट के समीप निक्षेपित होकर पुलिन, रोधिका, रोध, स्पिट तथा लैगून नमक भू-आकृतियों का निर्माण होता है
(2) निम्न अवसादी तट -निम्न अवसादी तट प्राय: मन्द ढाल वाले, सरल व नियमित होते हैं जिनमें नदियाँ तटीय मैदान व डेल्टा का निर्माण कर अपनी लम्बाई बढ़ाती रहती हैं।  जब मंद ढाल वाले अवसादी तटों पर तरंगें अवनमित होती हैं तो तल के अवसाद भी दोलित होते हैं और इनके परिवहन से अवरोधिकाएँ, लैगून वस्पिट निर्मित होते हैं। लैगून कालांतर में दलदल में परिवर्तित हो जाते हैं जो बाद में तटीय मैदान बनते हैं।
अपरदित स्थलरूप
भृगु
समुद्री तट पर तरंगों के आघात/प्रतिघात से उसके सम्मुख चट्टान का निचला प्रभावित भाग अनवरत तरंगों से कटता रहता है तथा वह भाग अन्दर तक खोखला हो जाता है यह लटका हुआ भाग मुख्य स्थलखण्ड से अपने बोझ से गुरूत्वाकर्षण के कारण टूटकर गिर जाता हैऔर तट एक खड़ी दीवार के समान पर दिखाई देता है | यही लम्बवत्‌ रूप से खड़े किनारों वाला अपरदित भाग भृगु कहलाता है लगभग सभी समुद्र भृगु की ढाल तीव्र होती है 
वेदिकाएँ
तटीय भृगु केआधार पर निर्मित खाँच के विस्तृत होने से जब तटीय भूगु का लटकता शीर्ष भाग आधार न मिलने के कारण बार-बार टूटता रहताहै तो तटीय भूगु निरन्तर पीछे स्थल की ओर हटता जाता है। इस क्रिया के बार-बार होने से तटीय भूगु के सामने सागरीय जल केअन्दर एक मैदान का निर्माण भी हो जाता है। इस मैदान को तरंग-घर्षित प्लेटफॉर्म या तरंग-घर्षित मैदान कहा जाता है।यदि यह मैदान तरंग की औसत ऊँचाई से अधिक ऊँचाई पर बनते हैं तो इन्हें तरंग घर्षित वेदिकाएँ कहते हैं।
कंदराएँ
यदि तटीय कठोर चट्टान के निचे मुलायम चट्टान हो तो समुद्रीय तरंगें मुलायम चट्टानो को काटकर भृगु केआधार पर रिक्त स्थान बनाती हैं और इसे गहराई तक खोखला कर देती हैं जिससे समुद्री कंदराएँ बनती हैं।
स्टैक
समुद्री कंदराओं की छत ध्वस्त होने से समुद्री भृगु स्थल की ओर हटते हैं। भृगु के पीछे हटने से चट्टानों के कुछ अवशेष तटों पर अलग-थलग छूट जाते हैं। ऐसी अलग-थलग प्रतिरोधी चट्टानेंजो कभी भृगु के भाग थे, समुद्री स्टैक कहलाते हैं।
निक्षेपित स्थलरूप
पुलिन
थल से नदियों व सरिताओं द्वारा अथवा तरंगों के अपरदनद्वारा बहाकर लाए गए अवसादो का तट के समीप होता है जिससे जलमग्न तट उथला हो जाता है जलमग्न तट का यह उथला भाग पुलीन कहलाता है
टिब्बे
पुलिन के ठीक पीछे, पुलिन तल से उठाई गई रेतटिब्बे के रूप में निक्षेपित होती है। जिसे रेट टिब्बे कहा जाता है
रोधिकाएँ
तरंगे तट से टकराने के बाद वापसी में अपने साथ रेत ,कंकड़ पत्थर अदि पदार्थ बहाकर ले जाती है और तट के लगभग सामानांतर कटक या बांध के रूप में जमा कर देती है ये जलमग्न बांध या कटक को रोधिका कहते है
रोध -जब रोधिकाएँ जल के ऊपरदिखाई देती हैं तो इन्हें रोध कहा जाता है।
स्पिट : बालू व सागरीय मलबे के निक्षेप से निर्मित ऐसी रोधिका जो लम्बी व संकरी हो तथा जिसका एक सिरा मुख्य स्थल खंड से जुड़ा हो तथा दूसरा नुकीला सिरा सागर की ओर खुला हो स्पिट कहलाती हैं
लैगून
जब किसी तट के सागर की ओर निकलेदो शीर्ष भू-भागों को या खाड़ी के अग्र सिरों को कोई रोधिका इस तरहजोड़ती है कि तट तथा रोधिका के मध्य सागरीय जल का आवागमन बहुतकम रह जाता है लगभग बन्द हो जाता है तो ऐसी आकृति लैगून कहलाती है
पवनें
पवन अपवाहन व घर्षण द्वारा अपरदन करती हैं।अपवाहन में पवन धरातल से चट्टानों के छोटे कण व धूल उठाती हैं। वायु की परिवहन की प्रक्रिया में रेत व बजरी आदि औजार की तरह धरातलीय चट्टानो पर चोट पहचुँकर घर्षण करती हैं। मरुस्थलों में पवनें कई रोचक अपरदनात्मक व निक्षेपणात्मक स्थलरूप बनाती हैं।
अपरदनात्मक स्थलरूप
1. पेडीमेंट और पदस्थली : पर्वतीय पादों पर मलबे रहित या मलबे सहित मन्द ढाल वाले चट्‌टानी तल पेडीपेन्ट कहलाते है। पेडीमेंट का निर्माण पर्वतीय अग्रभाग के अपक्षय तथा सरिता के क्षैतिज अपरदन द्वारा होता है। जब एक बार पेडीमेंट का निर्माण हो जता है तोउस पर होने वाले सतत अपरदन के कारण पेडीमेंट के पीछे का मुक्तपार्श्व पीछे हटने लगता है। इस प्रकार पर्वतों के अग्रभाग को अपरदित करते हुए पेडीमेंट आगे बढ़ते हैं तथा पर्वत घिसते हुए पीछे हटते हैं और धीरे-धीरे पर्वतों का अपरदन हो जाता है और केवल इंसेलबर्ग निर्मित होते हैं जो कि पर्वतों के अवशिष्ट रूप हैं। जिनका अस्तित्व भी सतत अपरदन से समाप्त हो जाता है। इस प्रकार मरस्थलीय प्रदेशों का एक उच्च धरातल आकृति विहीन मैदान में परिवर्तित हो जाता है जिसे पदस्थली कहा जाता है।
2. प्लाया : मरुस्थलीय भागों में पर्वतों या पहाड़ियों से घिरे बेसिन में स्थित ऐसा निचला सपाट भाग प्लाया कहलाता है जिसमें मरुस्थलीय नदियाँ अपना जल जमा करती हैं। प्लाया प्राय: शुष्क होते हैं लेकिन असामयिक वर्षा होने पर मौसमी जलधाराओं द्वारा इसमें जल जमा कर देने से यह एक अस्थायी झील का रूप ले लेते हैं। बाद में इस झील का जल वाष्प के रूप में उड़ जाता है तथा प्लाया की शुष्क तली पर सिल्ट तथा नमक के निक्षेप शेष रह जाते हैं। जब प्लाया के धरातल पर नमक की मात्रा अधिक हो जाती है तो ऐसे प्लाया को कल्लर भूमि या क्षारीय क्षेत्र या सैलीना कहा जाता है।
3. अपवाहन गर्त तथा गुहा - मरुस्थलीय भागों में वायु के निरन्तर प्रहार से एक ही स्थान की कोमल एवं ढीली चट्टानें आसानी से अपरदित होती रहती हैं। इस प्रकार हवा के इस अपरदन कार्य से पहले छोटे-छोटे गर्तो का निर्माण होता है, जो बाद में अत्यधिक अपरदन से आकार में बड़े हो जाते हैं। इन्हें ' अपवाहन गर्त' कहते हैं। मरुस्थलीय भागों अपवाहन प्रक्रिया से निर्मित में उथले गर्त में से कुछ उथले गर्त गहरे तथा विस्तृत हो जाते हैं तो उन्हें गुहा कहा जाता है।
4. इन्सेलबर्ग - मरुस्थलीय भागों में वायु द्वारा खड़े चट्टानी भागों के कोमल भाग आसानी से काट कर अपरदित कर दिए जाते हैं, लेकिन कठोर चट्टानी भाग ऊँचे टीलों के रूप में रह जाते हैं जिन्हें इन्सेलबर्ग कहते है
5. छत्रक, टेबल तथा पीठिका शैल   -  जब वायु तीव्र गति से बहती है तो उसमें रेत के भारी कण पिछे रहते हैं, जबकि क्रमश: हल्के कण ऊपर उड़ते हैं। अत: चट्टानों के निचले भागों में अपरदन ऊपरी भागों की अपेक्षा अधिक होता है, जिससे चट्टानों के नीचे का भाग संकीर्ण हो जाता है तथा ऊपरी भाग चौड़ा रहता है। और आकार में यह छतरी के समान हो जाता है इसे छत्रक कहते हैं।
जब छत्रक का ऊपरी हिस्सा मेज की भाँति विस्तृत होता है तो इसे छत्रक टेबल कहते है और जब ऐसे अवशेष पीठिका की भाँति खड़े रहते हैं।तो इसे पीठिका शैल कहते है
निक्षेपित स्थलरूप
पवन द्वारा बारीक रेत का परिवहन अधिकऊँचाई व अधिक दूरी तक होता है। पवनों के वेग केअनुरूप मोटे आकार के कण धरातल के साथ घर्षणकरते हुए चले आते हैं और अपने टकराने से अन्य कणों को ढीला कर देते हैं, जिसे साल्टेशन कहते हैं। हवा में लटकते महीन कण अपेक्षाकृत अधिक दूरी तक उड़ाकर ले जाए जा सकते हैं। चूँकि, पवनों द्वारा कणों का परिवहन उनके आकार व भार के अनुरूप होता है, अतः पवनों की परिवहन प्रक्रिया में ही पदार्थों की छँटाई का काम हो जाता है। जब पवन की गति घट जाती है या लगभग रुक जाती है तो कणों के आकार के आधार पर निक्षेपण प्रक्रिया आरंभ होती है।
बालुका स्तूप (बालू-टिब्बे) - पवन द्वारा रेत या बालू के निक्षेप से निर्मित टिब्बे या स्तूपों को बालुका स्तूप कहते हैं। आकार के आधार पर ये निम्न प्रकार के होते हैं-
(i) अनुप्रस्थ स्तूप- अनुप्रस्थ स्तूप प्रचलित पवनों की दिशा के समकोण पर बनते हैं। इसका' पवनोन्मुखी ढाल मन्द तथा विमुखी ढाल तीव्र होता है।
(ii) अनुदैर्घ्य स्तूप- जब रेत की आपूर्ति कम तथा पवनों की दिशा स्थायी रहे तो अनुदैर्ध्य टिब्बे बनते हैं हैं। ये अत्यधिक लंबाई व कम ऊँचाईके लम्बायमान कटक प्रतीत होते हैं।
(iii) परवलविक स्तूप --जब वायु की प्रवाहित दिशा के विपरीत बालू या रेत का जमाव होता है तो उसे परवलयिक स्तूप कहते हैं। इसका' पवनोन्मुखी ढाल मन्द तथा लम्बाई अधिक होती है।
(iv) बरखान - यह अर्द्धचन्द्राकार बालुका स्तूप है जो वायु की दिशा में आगे बढ़ता रहता है। इनकी भुजाएँ पवनों की दिशा में निकली होती हैं इसका पवनोन्‍मुखी भाग उत्तल ढाल तथा पबन विमुखीभाग अवतल ढाल वाला होता है इसके मध्य के रिक्त भाग को “गासी ' कहते हैं।
(v) सीफ - सीफ बरखान की तरह ही होते हैं लेकिन सीफ बालुका स्तूपों में केवल एक हो भुजा होतीहै, जो ऊँचाई तथा अधिक लम्बाई में मिल सकती है। ऐसा पवनों की दिशा में परिवर्तन के कारण होता है।

  1. स्थलरूप विकास की किस अवस्था में अधोमुख कटाव प्रमुख होता है ?
    (क) तरुणावस्था               (ख) प्रथम प्रौढ़ावस्था
    (ग) अन्तिम प्रौढ़ावस्था       (घ) वृद्धावस्था          (क)
  2. एक गहरी घाटी जिसकी विशेषता सीढ़ीनुमा खड़े ढाल होते हैंकिस नाम से जानी जाती है?
    (क) ‘U’ आकार घाटी       (ख) अन्धी घाटी
    (ग) गॉर्ज                       (घ) कैनियन              (ग)
  3. निम्न में से किन प्रदेशों में रासायनिक अपक्षय प्रक्रिया यान्त्रिक अपक्षय प्रक्रिया की अपेक्षा अधिक़ शक्तिशाली होती है?
    (क) आर्द्र प्रदेश               (ख) शुष्क प्रदेश
    (ग) चूना-पत्थर प्रदेश       (घ) हिमनद प्रदेश   (क)
  4. निम्न में से कौन-सा वक्तव्य लैपीज (Lapies) को परिभाषित करता है?
    (क) छोटे से मध्य आकार के उथले गर्त
    (ख) ऐसे स्थलरूप जिनके ऊपरी मुख वृत्ताकार वे नीचे से कीप के आकार के होते हैं।
    (ग) ऐसे स्थलरूप जो धरातल से जल के टपकने से बनते हैं।
    (घ) अनियमित धरातल जिनके तीखे कटक व खाँच हों     (घ)
  5. गहरेलम्बे व विस्तृत गर्त या बेसिन जिनके शीर्ष दीवारनुमा खड़े ढाल वाले व किनारे खड़े व अवतल होते हैं उन्हें क्या कहते हैं?
    (क) सर्क                   (ख) पाश्विक हिमोढ़
    (ग) घाटी हिमनद        (घ) एस्कर              (क)
  6. चट्टानों में अधः कर्तित विसर्प और मैदानी भागों में जलोढ़ के सामान्य विसर्प क्या बताते हैं?
    मैदानी भागों में  मन्द ढाल के कारण नदियाँ पार्श्व अपरदन अधिक करती है जिससे नदियाँ वक्रित होकर बहती हैं   और सामान्य विसर्प का निर्माण होता है जो अधिक चौड़ा होता है। तीव्र ढाल वाले चट्टानी भागों में नदियाँ पार्श्व अपरदन की अपेक्षा अधोतल या गहरा अपरदन करती हैं, इसलिए जो विसर्प बनते हैं वे अधिक गहरे होते हैं। इन्हें अधः कर्तित विसर्प कहते है इन दोनों स्थालरूपों के उचावाच्च में भिन्नता के कारण नदी की प्रकृति में अंतर पाया जाता है 
  7. घाटी रन्ध्र अथवा युवाला का विकास कैसे होता है?
    जब घोलरंध्र व डोलाइन कंदराओं की छत के गिरने से या पदार्थों के स्खलन द्वारा आपस में मिल जाते हैं, तो लंबी, तंग तथा विस्तृत खाइयाँ बनती हैं जिन्हें घाटी रंध्र  या युवाला  कहते हैं। जब  घोल रन्ध्र व डोलाइन  के नीचे बनी कन्दराओं की छत गिरती है तो विस्तृत खाइयों का विकास होता है जिन्हें घाटी रन्ध्र (Valley Sinks) या युवाला (Uvalas) कहते हैं।
  8. चूनायुक्त चट्टानी प्रदेशों में धरातलीय जल प्रवाह की अपेक्षा भौमजल प्रवाह अधिक पाया जाता है, क्यों?
    चुनायुक्त चट्टानें अधिक पारगम्य,कम सघन, अत्यधिक संधियों  एवं कोमल होती हैं। इन चट्टानों पर धरातलीय  जल छिद्रों से होकर भूमिगत जल के रूप में क्षैतिज रूप से प्रवाहित होने लगता है  
  9. हिमनद घाटियों में कई रैखिक निक्षेपण स्थलरूप मिलते हैं। इनकी अवस्थिति व नाम बताएँ।
    हिमनद घाटियों में  रैखिक निक्षेपण से हिमोढ़ बनते है  ये चार  प्रकार के होते है
    (i) अंतस्थ हिमोढ़- ये हिमनद के अंतिम भाग में बनते है 
    (ii) पार्श्विक हिमोढ़  -ये हिमनद के किनारों पर बनाते है 
    (iii) मध्यस्थ हिमोढ़- ये हिमनद के परस्पर मिलने वाले दो हिमनदों के मध्य भीतरी पार्श्विक हिमोढ़ों के मिलने वाले स्थान पर बनाते है 
    (iv) तलस्थ हिमोढ - ये हिमनद की तली में बनाते है 
  10. मरुस्थली क्षेत्रों में पवन कैसे अपना कार्य करती है? क्या मरुस्थलों में यही एक कारक अपरदित स्थलरूपों का निर्माण करता है?
    मरुस्थली क्षेत्रों में पवन अपना अपरदनात्मक कार्य अपवाहन एवं घर्षण द्वारा करती है। अपवाहन में पवन धरातल से चट्टानों के छोटे कण व धूल उठाती है। वायु की परिवहन प्रक्रिया में रेत एवं बजरी आदि औजारों की तरह धरातलीय चट्टानों पर चोट पहुँचाकर घर्षण करती है। मरुस्थलीय क्षेत्रों में पवन के अतिरिक्त प्रवाहित जल भी चादर बाढ़  द्वारा कुछ स्थलरूपों का निर्माण करता है
  11. आर्द्र व शुष्क जलवायु प्रदेशों में प्रवाहित जल ही सबसे महत्वपूर्ण भू-आकृतिक कारक है। विस्तार से वर्णन करें।
    आर्द्र व शुष्क जलवायु प्रदेशों में प्रवाहित जल ही सबसे महत्वपूर्ण भू-आकृतिक कारक है क्योकि आर्द्र प्रदेशों में जहाँ अत्यधिक वर्षा होती है. प्रवाहित जल सबसे आवश्यक भू-आकृतिक कारक है जो धरातल के निम्नीकरण के लिए उत्तरदायी है। प्रवाहित जल को दो तत्व में विभाजित किया जाता हैं। एक धरातल पर परत के रूप में फैला हुआ प्रवाह हैं  दूसरा रैखिक प्रवाह है जो घाटियों में नदियों, सरिताओं के रूप में बहता है। आर्द्र प्रदेशों में  प्रवाहित जल द्वारा निर्मित अधिकतर अपरदित स्थलरूप ढाल प्रवणता के अनुरूप बहती हुई नदियों की आक्रमण युवावस्था से संबंधित हैं। कालांतर में तेज ढाल लगातार अपरदन के कारण मंद ढ़ाल में परिवर्तित हो जाते हैं और परिणामस्वरूप नदियों का वेग कम हो जाता है, जिससे निक्षेपण आरंभ होता है। तेज ढाल से बहती हुई सरिताएँ भी कुछ निक्षेपित भू-आकृतियाँ बनाती हैं, लेकिन ये नदियों के मध्यम तथा धीमे ढाल पर बने आकारों की अपेक्षा बहुत कम होते हैं। प्रवाहित जल की ढाल जितना मंद होगा, उतना ही अधिक निक्षेपण होगा। बहुत ज़्यादा अपरदन की वजह से नदी तल समतल हो जाए, तो अधोमुखी कटाव कम हो जाता है तथा तटों का पार्श्व अपरदन बढ़ जाता है तथा इसके कारण पहाड़ियाँ और घाटियाँ समतल मैदानों में बदल जाती हैं।
    शुष्क क्षेत्रों में ज़्यादा स्थलाकृतियों का निर्माण बृहत क्षरण तथा प्रवाहित जल की चादर बाढ़ से होता है। यद्यपि मरुस्थलों में वर्षा बहुत कम होती है, लेकिन यह अल्प समय में मूसलाधार वर्षा के रूप में होती है। मरुस्थलीय चट्टानें अत्यधिक वनस्पतिविहीन होने के कारण तथा दैनिक तापांतर के कारण यांत्रिक एवं रासायनिक अपक्षय से अधिक प्रवाहित होती हैं। मरुस्थलीय भागों में भू-आकृतिकयों का निर्माण सिर्फ पवनों से नहीं बल्कि प्रवाहित जल से भी होता है।
  12. चूना चट्टानें आर्द्र व शुष्क जलवायु में भिन्न व्यवहार करती हैं, क्यों? चूना प्रदेशों में प्रमुख व मुख्य भू-आकृतिक प्रक्रिया कौन-सी है और इसके क्या परिणाम हैं?
    आर्द्र जलवायु प्रदेशों  में धरातलीय जल का अन्तःस्रवण आसानी से हो जाता है क्योंकि यहाँ चट्टानें पारगम्य, कम सघन, अत्यधिक सन्धियुक्त व दरारों वाली होती है लम्बवत् गहराई पर जाने के बाद जल धरातल के नीचे चट्टानों की संधियोंछिद्रों व संस्तरण तल से होकर क्षैतिज अवस्था में बहना प्रारंभ करता है। चुना एक घुलनशील पदार्थ होने की वजह से चट्टान पर इसके रासायनिक अपक्षय का प्रभाव सबसे ज़्यादा होता है, जबकि शुष्क प्रदेशों  चूना चट्टानें  कठोर होती है तथा यहाँ वर्षा भी कम होती है जिस वजह से चट्टान का कटाव अधिक मात्रा में नहीं हो पाता है।
    चूना- चट्टानों के क्षेत्र में भौमजल द्वारा घुलन क्रिया तथा उसकी निक्षेपण प्रक्रिया से बने ऐसे स्थलरूपों को कार्स्ट स्थलाकृति कहा जाता है। अपरदित स्थलरूप कुंड, लेपीज, घोलरंध्र तथा चूना-पत्थर चबूतरे हैं। निक्षेपित स्थलरूप स्टैलेक्टाइट, स्टैलेग्माइट और स्तंभ आदि कंदराओं के भीतर निर्मित होते हैं। 
  1. बहते हुए जल (नदी) की अपरदन क्रिया से उत्पन्न दो स्थलाकृतियों के नाम लिखिए।
    1. जल-प्रपात तथा 2. ‘वी’-आकार की घाटी।
  2. हिमरेखा क्या होती है?
    हिमरेखा वह काल्पनिक रेखा है जिससे ऊपर आर्द्रता सदैव हिम के रूप में पाई जाती है।
  3. नदी की युवावस्था में बनने वाली दो आकृतियों का उल्लेख कीजिए।
    ‘V’ आकार की घाटी तथा 2. जल-प्रपात या झरना।
  4. नदी की जीर्णावस्था (वृद्धावस्था) में बनने वाली किसी एक आकृति का उल्लेख कीजिए।
    नदी की जीर्णावस्था (वृद्धावस्था) में बनने वाली प्रमुख आकृति डेल्टा है
  5. नदी की प्रौढावस्था में बनने वाली दो आकृतियों का उल्लेख कीजिए।
    1. जलोढ़ पंख तथा 2. नदी विसर्प।
  6. वायु द्वारा निर्मित मुख्य अपरदनात्मक स्थलाकृतियों के नाम बताइए।
    वायु द्वारा निर्मित मुख्य अपरदनात्मक स्थलाकृतियाँ हैं—
    इन्सेलबर्ग, छत्रक, वातगर्त, प्लाया,  पेडीप्लेन, 
  7.  इन्सेलबर्ग क्या होते है 
    मरुस्थलीय भागों में वायु द्वारा खड़े चट्टानी भागों के कोमल भाग आसानी से काटकर अपरदित कर दिए जाते हैं, लेकिन कठोर चट्टानी भाग ऊँचे टीलों के रूप में रह जाते हैं जिन्हें इन्सेलबर्ग कहते है 
  8.  फियोर्ड किसे कहते है 
    उच्च अक्षांशों पर हिमानियाँ समुद्र ताट पर पहुंचकर सागर तली को गहरा कर देती है जिससे समुद्र तट अत्यधिक कट फट जाता है समुद्र में डूबी इन गहरी हिमघाटियों या हिमगर्तों में समुद्री जल भर जाता है उन्हें फियोर्ड कहते हैं।
  9. ‘U’ आकार की घाटी की किन्हीं दो विशेषताओं को लिखिए।
    1.इसका तल चौरस तथा गहरा होता है।
    2. इसके किनारों का ढाल खड़ा होता है।
  10. हिमानी द्वारा निर्मित मुख्य अपरदनात्मक स्थलाकृतियों के नाम बताइए।
    हिमानी द्वारा निर्मित मुख्य अपरदनात्मक स्थलाकृतियाँ हैं—‘U’ आकार की घाटीलटकती घाटीसर्कहिमश्रृंगतथा गिरिशृंग।
  11. रोधिकाएँ क्या हैं? इनसे सम्बन्धित स्थलरूप बताइए।
    तरंगे तट से टकराने के बाद वापसी में अपने साथ रेत ,कंकड़ पत्थर अदि पदार्थ बहाकर ले जाती है और तट के लगभग सामानांतर कटक या बांध के रूप में जमा कर देती है ये जलमग्न बांध या कटक को रोधिका कहते है रोधिकाएँ जलमग्न आकृतियाँ हैं। रोध,  स्पिट ,लैगून इनसे सम्बन्धित स्थलरूप है
  12. अपरदन के कारकों का नाम लिखिए 
    1. बहता हुआ जल    2. हिमानी 
    3. पवन                  4. सागरीय लहरें  
    5. भूमिगत जल
  13. प्लाया क्या होती है 
    मरुस्थलीय भागों में पर्वतों या पहाड़ियों से घिरे बेसिन में स्थित ऐसा निचला सपाट भाग प्लाया कहलाता है जिसमें मरुस्थलीय नदियाँ अपना जल जमा करती हैं। प्लाया प्राय: शुष्क होते हैं लेकिन असामयिक वर्षा होने पर मौसमी जलधाराओं द्वारा इसमें जल जमा कर देने से यह एक अस्थायी झील का रूप ले लेते हैं।
  14. गार्ज और कैनियन में अंतर लिखिए 
    गॉर्ज की चौड़ाई इसके तल व ऊपरी भाग में लगभग एक समान होती है। इसके विपरीत, एक कैनियन तल की अपेक्षा ऊपरी भाग पर अधिक चौड़ा होता है।  कैनियन का निर्माण प्रायः अवसादी चट्टनों  में  होता है तथा गॉर्ज कठोर चट्टनों में बनता है। 
  15. U आकार की घाटी का निर्मण कैसे होता है 
    U आकार की घाटी - पर्वतीय नदियों द्वारा निर्मित V आकार की घाटियों में जब हिमानी बहती है तो हिमानी इन V आकार की घाटियों की तली और पार्श्व को घिसकर व खरोंचकर गहरा और चौड़ा कर देती हैं, जिससे घाटी का आकार U आकार के समान हो जाता है।
  16. धौत मैदान किसे कहते है 
    हिमानी गिरिपद के मैदानों में अथवा महाद्वीपीय हिमनदों से दूर हिमानी-जलोढ़ निक्षेपों के जमाव से निर्मित मैदान हिमानी धौत मैदान कहलाता हैं
  17. ड्रमलीन से क्या अभिप्राय है 
    ड्रमलीन हिमनद मृत्तिका के निक्षेप द्वारा निर्मित स्थलरूप है  जिनका आकार उल्टी नाव या कटे हुए उल्टे अण्डे के समान होता हैं। ड्रमलीन का हिमनद के मुख की ओर का भाग स्टॉस कहलाता है जो खडे ढाल वाला तथा खुरदरा होता हैं परन्तु दूसरी ओर वाला भाग मन्द ढाल वाला होता हैं। ड्रमलिन हिमनद प्रवाह दिशा को बताते हैं।
  18. हिमनद किसे कहते है समझाइए 
    पृथ्वी पर परत के रूप में हिम प्रवाह या पर्वतीय ढालों से घाटियों में रैखिक प्रवाह के रूप में बहते हिम संहति को हिमनद कहते हैं। 
    महाद्वीपीय हिमनद या गिरिपद हिमनद -वे हिमनद जो वृहत् समतल क्षेत्र पर हिम परत के रूप में फैले हुए है  पर्वतीय या घाटी हिमनद - वे हिमनद जो पर्वतीय ढालों में बहते हैं 
  19. हिमोढ़ किसे कहते है ये कितने प्रकार के होते है 
    हिमनद द्वारा अपने साथ बहाकर लाये गये शैल पदार्थ या अवसाद जिनका निक्षेप घाटी के विभिन्न भागों में होता है। इन शैल पदार्थों के निक्षेप को हिमोढ़ कहते हैं। हिमोढ़ में गोलाश्म, छोटे-छोटे शैलखंड, बजरी, रेत, मृत्तिका आदि विभिन्न पदार्थ पाये जाते हैं हिमोढ़ निम्न प्रकार के होते है 
    1.पार्श्विक हिमोढ़- जब हिमनद के किनारों पर हिमोढ़ का निक्षेप लम्बे एवं संकीर्ण कटक के रूप होता है उसे पार्श्विक हिमोढ़ कहते हैं। 
    2.मध्यस्थ हिमोढ़ -परस्पर मिलने वाले दो हिमनदों के मध्य भीतरी पार्श्विक हिमोढ़ों के मिलने से बनाने वाला हिमोढ़ मध्यस्थ हिमोढ़ कहलाता है। 
    3.तलस्थ हिमोढ़ - हिमनद की तली पर एकत्रित होने वाले शैल पदार्थों को तलस्थ हिमोढ़ कहा जाता है। 
    4.अंतस्थ हिमोढ़ - जब हिमनद का अंतिम (छोर) भाग पिघलता है उसके साथ मिश्रित मलबे  का निक्षेप हिमनद के अग्र (अंतिम) भाग में होने लगता है इसे अंतस्थ हिमोढ़ कहते हैं। 
  20. गोखुर झील  किस प्रकार निर्मित होती है?
    मैदानी भागों में नदियों का वेग मन्द हो जाता है तथा प्रवाह के लिए नदियाँ ढालू मार्ग कोमल चट्टानों को खोजती रहती हैं। इसी स्वभाव के कारण नदी की धारा में जगह-जगह घुमाव या मोड़ पड़ जाते हैं, जिन्हें विसर्प या नदी मोड़ कहते हैं। प्रारम्भ में नदी द्वारा निर्मित मोड़ छोटे-छोटे होते हैं परन्तु धीरे-धीरे इनका आकार बढ़कर घुमावदार होता जाता है। जब ये विसर्प बहुत विशाल और घुमावदार हो जाते हैं, तब बाढ़ के समय नदी का तेजी से बहता हुआ जल घूमकर बहने के स्थान पर सीधे ही मोड़ की संकरी ग्रीवा को काटकर प्रवाहित होने लगता है तथा नदी को मोड़ मुख्य धारा से कटकर अलग हो जाता है। इस प्रकार उस पृथक् हुए मोड़ से एक झील का निर्माण होता है। इस झील की आकृति गाय के खुर जैसी होती है इसलिए नदी मोड़ एवं जलधारा की तीव्र गति से बनी यह झील गोखुर झील कहलाती है।

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