ई.टी. पॉल म्यूजिक कम्पनी ने सन् 1900 में संगीत की एक
किताब प्रकाशित की थी जिसकी जिल्द पर दी गई तस्वीर में ‘नयी
सदी के उदय’ (डॉन ऑफ द सेंचुरी) का ऐलान किया था। तस्वीर के
मध्य में एक देवी जैसी तस्वीर है। यह देवी हाथ में नयी शताब्दी की ध्वज लिए प्रगति
का फरिश्ता दिखाई देती है। उसका एक पाँव पंखों वाले पहिये पर टिका हुआ है। यह
पहिया समय का प्रतीक है। उसकी उड़ान भविष्य की ओर है। उसके पीछे उन्नति के चिह्न
तैर रहे हैं रेलवे, कैमरा, मशीनें,
प्रिंटिंग प्रेस और कारख़ाना।
यूरोपीय कंपनियों की ताकत बढ़ती जा रही थी। पहले उन्होंने स्थानीय दरबारों
से कई तरह की रियायतें हासिल कीं और उसके बाद उन्होंने व्यापार पर इशारेदारी
अधिकार प्राप्त कर लिए। इससे सूरत व हुगली, दोनों पुराने बंदरगाह
कमजोर पड़ गए। इन बंदरगाहों से होने वाले निर्यात में नाटकीय कमी आई।
पहले जिस कर्जे से व्यापार चलता था वह खत्म होने लगा। धीरे-धीरे स्थानीय
बैंकर दिवालिया हो गए। सूरत व हुगली कमजोर पड़ रहे थे और बंबई व कलकत्ता की स्थिति
सुधर रही थी। पुराने बंदरगाहों की जगह नए बंदरगाहों का बढ़ता महत्त्व औपनिवेशिक
सत्ता की बढ़ती ताकत का संकेत था। नए बंदरगाहों के जरिए होने वाला व्यापार यूरोपीय
कंपनियों के नियंत्रण में था और यूरोपीय जहाजों के जरिए होता था। बहुत सारे पुराने
व्यापारिक घराने ढह चुके थे। जो बचे रहना चाहते थे उनके पास भी यूरोपीय व्यापारिक
कंपनियों के नियंत्रण वाले नेटवर्क में काम करने के अलावा कोई चारा नहीं था।
2 बुनकरों का क्या हुआ?
1760 के दशक के बाद ईस्ट इंडिया कम्पनी की सत्ता के सुदृढ़ीकरण की शुरुआत में भारत के कपड़ा निर्यात में गिरावट नहीं आई। ब्रिटिश कपास उद्योग अभी फैलना शुरू नहीं हुआ था और यूरोप में बारीक भारतीय कपड़ों की भारी माँग थी। इसलिए कम्पनी भी भारत से होने वाले कपड़े के निर्यात को ही और फैलाना चाहती थी।
1760 और 1770 के दशकों में बंगाल और कर्नाटक में राजनीतिक सत्ता स्थापित करने से पहले ईस्ट इंडिया कम्पनी को निर्यात के लिए लगातार सप्लाई आसानी से नहीं मिल पाती थी। बुने हुए कपड़े को हासिल करने के लिए फ़्रांसिसी, डच और पुर्तगालियों के साथ-साथ स्थानीय व्यापारी भी होड़ में रहते थे। इस प्रकार बुनकर और आपूर्ति सौदागर खूब मोल-भाव करते थे और अपना माल सबसे ऊँची बोली लगाने वाले खरीदार को ही बेचते थे। लेकिन एक बार ईस्ट इंडिया कम्पनी की राजनीतिक सत्ता स्थापित हो जाने के बाद कम्पनी व्यापार पर अपने एकाधिकार का दावा कर सकती थी। फलस्वरूप उसने प्रतिस्पर्धा खत्म करने, लागतों पर अंकुश रखने और कपास व रेशम से बनी चीजों की नियमित आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए प्रबंधन और नियंत्रण की एक नयी व्यवस्था लागू कर दी।
यह काम कई चरणों में किया गया।
पहला: कम्पनी ने कपड़ा व्यापार में सक्रिय व्यापारियों और दलालों को खत्म करने तथा बुनकरों पर ज्यादा प्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश की। कम्पनी ने बुनकरों पर निगरानी रखने, माल इकट्ठा करने और कपड़ों की गुणवत्ता जाँचने के लिए वेतनभोगी कर्मचारी तैनात कर दिए जिन्हें गुमाश्ता कहा जाता था।
दूसरा: कम्पनी को माल बेचने वाले बुनकरों को अन्य खरीदारों के साथ कारोबार करने पर पाबंदी लगा दी गई। इसके लिए उन्हें पेशगी रकम दी जाती थी। एक बार काम का ऑर्डर मिलने पर बुनकरों को कच्चा माल खरीदने के लिए कर्जा दे दिया जाता था। जो कर्जा लेते थे उन्हें अपना बनाया हुआ कपड़ा गुमाश्ता को ही देना पड़ता था। उसे वे किसी और व्यापारी को नहीं बेच सकते थे। जैसे-जैसे कर्जे मिलते गए और महीन कपड़े की माँग बढ़ने लगी, ज्यादा कमाई की आस में बुनकर पेशगी स्वीकार करने लगे।
बहुत सारे बुनकरों के पास जमीन के छोटे-छोटे पट्टे थे जिन पर वे खेती करते थे और अपने परिवार की जरूरतें पूरी कर लेते थे। अब वे इस जमीन को भाड़े पर देकर पूरा समय बुनकरी में लगाने लगे। अब पूरा परिवार यही काम करने लगा। बच्चे व औरतें, सभी कुछ न कुछ काम करते थे। लेकिन जल्दी ही बहुत सारे बुनकर गाँवों में बुनकरों और गुमाश्तों के बीच टकराव की खबरें आने लगीं। इससे पहले आपूर्ति सौदागर अक्सर बुनकर गाँवों में ही रहते थे और बुनकरों से उनके नजदीकी ताल्लुकात होते थे। वे बुनकरों की जरूरतों का खयाल रखते थे और संकट के समय उनकी मदद करते थे। नए गुमाश्ता बाहर के लोग थे। उनका गाँवों से पुराना सामाजिक संबंध नहीं था। वे दंभपूर्ण व्यवहार करते थे, सिपाहियों व चपरासियों को लेकर आते थे और माल समय पर तैयार न होने की स्थिति में बुनकरों को सजा देते थे। सजा के तौर पर बुनकरों को अक्सर पीटा जाता था और कोड़े बरसाए जाते थे। अब बुनकर न तो दाम पर मोलभाव कर सकते थे और न ही किसी और को माल बेच सकते थे। उन्हें कम्पनी से जो कीमत मिलती थी वह बहुत कम थी पर वे कर्जों की वजह से कम्पनी से बँधे हुए थे। कर्नाटक और बंगाल में बहुत सारे स्थानों पर बुनकर गाँव छोड़ कर चले गए। वे अपने रिश्तेदारों के यहाँ किसी और गाँव में करघा लगा लेते थे। कई स्थानों पर कम्पनी और उसके अफसरों का विरोध करते हुए गाँव के व्यापारियों के साथ मिलकर बुनकरों ने बगावत कर दी। कुछ समय बाद बहुत सारे बुनकर कर्जा लौटाने से इनकार करने लगे। उन्होंने करघे बंद कर दिए और खेतों में मजदूरी करने लगे।
3 भारत में मैनचेस्टर का आना
1772 में ईस्ट इंडिया कम्पनी के अफसर हेनरी पतूलो ने कहा था कि भारतीय कपड़े की माँग कभी कम नहीं हो सकती क्योंकि दुनिया के किसी और देश में इतना अच्छा माल नहीं बनता। लेकिन उन्नीसवीं सदी की
शुरुआत में भारत के कपड़ा निर्यात में गिरावट आने लगी जो लंबे समय तक जारी रही।
जब इंग्लैंड में कपास उद्योग विकसित हुआ तो वहाँ के उद्योगपतियों ने दूसरे देशों से आने वाले आयातित कपड़े पर आयात शुल्क लगाने के लिए सरकार पर दबाव डाला जिससे मैनचेस्टर में बने कपड़े बाहरी प्रतिस्पर्धा के बिना इंग्लैंड में आराम से बिक सकें। दूसरी तरफ उन्होंने ईस्ट इंडिया कम्पनी पर दबाव डाला कि वह ब्रिटिश कपड़ों को भारतीय बाजारों में भी बेचे। इस प्रकार भारत में कपड़ा बुनकरों के सामने एक-साथ दो समस्याएँ थीं।
उनका निर्यात बाजार ढह रहा था और स्थानीय बाजार सिकुड़ने लगा था।
स्थानीय बाजार में मैनचेस्टर के आयातित मालों की भरमार थी। कम लागत पर मशीनों से बनने वाले आयातित कपास उत्पाद इतने सस्ते थे कि बुनकर उनका मुकाबला नहीं कर सकते थे। 1850 के दशक तक देश के ज्यादातर बुनकर इलाकों में गिरावट और बेकारी के ही किस्सों की भरमार थी।
1860 के दशक में बुनकरों के सामने नयी समस्या खड़ी हो गई। उन्हें अच्छी कपास नहीं मिल पा रही थी। जब अमेरिकी गृहयुद्ध शुरू हुआ और अमेरिका से कपास की आमद बंद हो गई तो ब्रिटेन भारत से कच्चा माल मँगाने लगा। भारत से कच्चे कपास के निर्यात में इस वृद्धि से उसकी कीमत आसमान छूने लगी। भारतीय बुनकरों को कच्चे माल के लाले पड़ गए। उन्हें मनमानी कीमत पर कच्ची कपास खरीदनी पड़ती थी। ऐसी सूरत में बुनकरी के सहारे पेट पालना संभव नहीं था।
उन्नीसवीं सदी के आखिर में बुनकरों और कारीगरों के सामने एक और समस्या आ गई।
अब भारतीय कारखानों में उत्पादन होने लगा और बाजार मशीनों की बनी चीजों से पट गया
था।
4
फैक्ट्रियों का आना
बंबई में पहली कपड़ा मिल 1854 में लगी। बंगाल में देश की पहली जूट मिल 1855 में और दूसरी 7 साल बाद 1862 में चालू हुई। उत्तरी भारत में एल्गिन मिल 1860 के दशक में कानपुर में खुली। इसके साल भर बाद अहमदाबाद की पहली कपड़ा मिल भी चालू हो गई। 1874 में मद्रास में भी पहली कताई और बुनाई मिल खुल गई।
1 प्रारंभिक उद्यमी
अठारहवीं सदी के आखिर से ही अंग्रेज भारतीय अफीम का चीन को निर्यात करने लगे थे। उसके बदले में वे चीन से चाय खरीदते थे जो इंग्लैंड जाती थी। इस व्यापार में बहुत सारे भारतीय कारोबारी सहायक की हैसियत में पहुँच गए थे। वे पैसा उपलब्ध कराते थे, आपूर्ति सुनिश्चित करते थे और माल को जहाजों में लाद कर रवाना करते थे। व्यापार से पैसा कमाने के बाद उनमें से कुछ व्यवसायी भारत में औद्योगिक उद्यम स्थापित करना चाहते थे। बंगाल में द्वारकानाथ टैगोर ने चीन के साथ व्यापार में खूब पैसा कमाया और वे उद्योगों में निवेश करने लगे। 1830-1840 के दशकों में उन्होंने 6 संयुक्त उद्यम कंपनियाँ लगा ली थीं। 1840 के दशक में आए व्यापक व्यावसायिक संकटों में औरों के साथ-साथ टैगोर के उद्यम भी बैठ गए। लेकिन उन्नीसवीं सदी में चीन के साथ व्यापार करने वाले बहुत सारे व्यवसायी सफल उद्योगपति भी साबित हुए। बंबई में डिनशॉ पेटिट और आगे चलकर देश में विशाल औद्योगिक साम्राज्य स्थापित करने वाले जमशेदजी नुसरवानजी टाटा जैसे पारसियों ने आंशिक रूप से चीन को निर्यात करके और आंशिक रूप से इंग्लैंड को कच्ची कपास निर्यात करके पैसा कमा लिया था। 1917 में कलकत्ता में देश की पहली जूट मिल लगाने वाले मारवाड़ी व्यवसायी सेठ हुकुमचंद ने भी चीन के साथ व्यापार किया था। यही काम प्रसिद्ध उद्योगपति जी.डी. बिड़ला के पिता और दादा ने किया।
पूँजी इकट्ठा करने के लिए अन्य व्यापारिक नेटवर्कों का सहारा लिया गया।
मद्रास के कुछ सौदागर बर्मा से व्यापार करते थे जबकि कुछ के मध्य-पूर्व व पूर्वी
अफ्रीका में संबंध थे। इनके अलावा भी कुछ वाणिज्यिक समूह थे लेकिन वे विदेश
व्यापार से सीधे जुड़े हुए नहीं थे। वे भारत में ही व्यवसाय करते थे। वे एक जगह से
दूसरी जगह माल ले जाते थे, सूद पर पैसा चलाते थे
जब उद्योगों में निवेश के अवसर आए तो उनमें से बहुतों ने फैक्ट्रियाँ लगा
लीं। जैसे भारतीय व्यापार पर औपनिवेशिक शिकंजा कसता गया, वैसे-वैसे
भारतीय व्यावसायियों के लिए जगह सिकुड़ती गई। उन्हें अपना तैयार माल यूरोप में
बेचने से रोक दिया गया। अब वे मुख्य रूप से कच्चे माल और अनाज- कच्ची कपास,
अफीम, गेहूँ और नील-का ही निर्यात कर सकते थे
जिनकी अंग्रेजों को जरूरत थी। धीरे-धीरे उन्हें जहाजरानी व्यवसाय से भी बाहर धकेल
दिया गया।
पहले विश्वयुद्ध तक यूरोपीय प्रबंधकीय एजेंसियाँ भारतीय उद्योगों के विशाल
क्षेत्र का नियंत्रण करती थीं। इनमें बर्ड हीगलर्स एंड कम्पनी, एंड्रयू
यूल, और जार्डीन स्किनर एंड कम्पनी सबसे बड़ी कंपनियाँ थीं।
ये एजेंसियाँ पूँजी जुटाती थीं, संयुक्त उद्यम कंपनियाँ
लगाती थीं और उनका प्रबंधन सँभालती थीं।ज्यादातर मामलों में भारतीय वित्तपोषक
(फाइनेंसर) पूँजी उपलब्ध कराते थे जबकि निवेश और व्यवसाय से संबंधित फैसले यूरोपीय
एजेंसियाँ लेती थीं। यूरोपीय व्यापारियों-उद्योगपतियों के अपने वाणिज्यिक परिसंघ
थे जिनमें भारतीय व्यवसायियों को शामिल नहीं किया जाता था।
2
मजदूर कहाँ से आए?
ज्यादातर औद्योगिक इलाकों में मजदूर आसपास के जिलों से आते थे। जिन किसानों-कारीगरों को गाँव में काम नहीं मिलता था वे औद्योगिक केंद्रों की तरफ जाने लगते थे। 1911 में बंबई के सूती कपड़ा उद्योग में काम करने वाले 50 प्रतिजत से ज्यादा मजदूर पास के रत्नागिरी जिले से आए थे। कानपुर की मिलों में काम करने वाले ज्यादातर कानपुर जिले के ही गाँवों से आते थे। मिल मजदूर बीच-बीच में अपने गाँव जाते रहते थे। वे फसलों की कटाई व त्यौहारों के समय गाँव लौट जाते थे। बाद में, जब नए कामों की खबर फैली तो दूर-दूर से भी लोग आने लगे।
नौकरी पाना हमेशा मुश्किल था। हालाँकि मिलों की संख्या बढ़ती जा
रही थी और मजदूरों की माँग भी बढ़ रही थी लेकिन रोजगार चाहने वालों की संख्या
रोजगारों के मुकाबले हमेशा ज्यादा रहती थी। मिलों में प्रवेज भी निषिद्ध था।
उद्योगपति नए मजदूरों की भर्ती के लिए प्रायः एक जॉबर रखते थे। जॉबर कोई पुराना और विश्वस्त कर्मचारी होता था। वह अपने गाँव से लोगों को लाता था, उन्हें काम का भरोसा देता था, उन्हें शहर में जमने के लिए मदद देता था और मुसीबत में पैसे से मदद करता था। इस प्रकार जॉबर ताकतवर और मजबूत व्यक्ति बन गया था। बाद में जॉबर मदद के बदले पैसे व तोहफों की माँग करने लगे और मजदूरों की जिंदगीको नियंत्रित करने लगे। समय के साथ फैक्ट्री मजदूरों की संख्या बढ़ने लगी।
जॉबर: इन्हें अलग-अलग इलाकों में ‘सरदार’ या ‘मिस्त्री’ आदि भी कहते थे।
5 औद्योगिक विकास का अनूठापन
भारत में औद्योगिक उत्पादन पर वर्चस्व रखने वाली यूरोपीय प्रबंधकीय
एजेंसियों की कुछ खास तरह के उत्पादों में ही दिलचस्पी थी। उन्होंने औपनिवेशिक
सरकार से सस्ती कीमत पर जमीन लेकर चाय व कॉफी के बागान लगाए और खनन, नील
व जूट व्यवसाय में पैसे का निवेश किया। इनमें से ज्यादातर ऐसे उत्पाद थे जिनकी
भारत में बिक्री के लिए नहीं बल्कि मुख्य रूप से निर्यात के लिए आवश्यकता थी।
उन्नीसवीं सदी के आखिर में जब भारतीय व्यवसायी उद्योग लगाने लगे तो उन्होंने भारतीय बाजार में मैनचेस्टर की बनी चीजों से प्रतिस्पर्धा नहीं की। भारत आने वाले ब्रिटिश मालों में धागा बहुत अच्छा नहीं था इसलिए भारत के शुरुआती सूती मिलों में कपड़े की बजाय मोटे सूती धागे ही बनाए जाते थे। जब धागे का आयात किया जाता था तो वह हमेशा बेहतर किस्म का होता था। भारतीय कताई मिलों में बनने वाले धागे का भारत के हथकरघा बुनकर इस्तेमाल करते थे या उन्हें चीन को निर्यात कर दिया जाता था। बीसवीं सदी के पहले दशक तक भारत में औद्योगीकरण का ढर्रा कई बदलावों की चपेट में आ चुका था। स्वदेशी आंदोलन को गति मिलने से राष्ट्रवादियों ने लोगों को विदेशी कपड़े के बहिष्कार के लिए प्रेरित किया। औद्योगिक समूह अपने सामूहिक हितों की रक्षा के लिए संगठित हो गए और उन्होंने आयात शुल्क बढ़ाने तथा अन्य रियायतें देने के लिए सरकार पर दबाव डाला। 1906 के बाद चीन भेजे जाने वाले भारतीय धागे के निर्यात में भी कमी आने लगी थी। चीनी बाजारों में चीन और जापान की मिलों के उत्पाद छा गए थे। फलस्वरूप, भारत के उद्योगपति धागे की बजाय कपड़ा बनाने लगे।
1900 से 1912 के भारत में सूती कपड़े का उत्पादन दोगुना हो गया। पहले विश्व युद्ध तक औद्योगिक विकास धीमा रहा। युद्ध ने एक बिलकुल नयी स्थिति पैदा कर दी थी। ब्रिटिश कारख़ाने सेना की जरूरतों को पूरा करने के लिए युद्ध संबंधी उत्पादन में व्यस्त थे इसलिए भारत में मैनचेस्टर के माल का आयात कम हो गया। भारतीय बाजारों को रातोंरात एक विशाल देशी बाजार मिल गया। युद्ध लम्बा खिंचा तो भारतीय कारखानों में भी फौज के लिए जूट की बोरियाँ,फौजियों के लिए वर्दी के कपड़े, टेंट और चमड़े के जूते, घोड़े व खच्चर की जीन तथा बहुत सारे अन्य सामान बनने लगे। नए कारखाने लगाए गए। पुराने कारखाने कई पारियों में चलने लगे। बहुत सारे नए मजदूरों को काम पर रखा गया और हरेक को पहले से भी ज्यादा समय तक काम करना पड़ता था। युद्ध के दौरान औद्योगिक उत्पादन तेजी से बढ़ा।
युद्ध के बाद भारतीय बाजार में मैनचेस्टर को पहले वाली हैसियत कभी हासिल
नहीं हो पायी। आधुनिकीकरण न कर पाने और अमेरिका, जर्मनी व जापान के
मुकाबले कमजोर पड़ जाने के कारण ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था चरमरा गई थी। कपास का
उत्पादन बहुत कम रह गया था और ब्रिटेन से होने वाले सूती कपड़े के निर्यात में
जबरदस्त गिरावट आई। उपनिवेशों में विदेशी उत्पादों को हटाकर स्थानीय उद्योगपतियों
ने घरेलू बाजारों पर कब्जा कर लिया और धीर-धीरे अपनी स्थिति मजबूत बना ली।
1 लघु उद्योगों की बहुतायत
युद्ध के बाद फैक्ट्री उद्योगों में लगातार इजाफा हुआ
लेकिन अर्थव्यवस्था में विशाल उद्योगों का हिस्सा बहुत छोटा था। उनमें से ज्यादातर बंगाल और बंबई
में स्थित थे। बाकी पूरे देश में छोटे स्तर के उत्पादन का ही दबदबा रहा। पंजीकृत
फैक्ट्रियों में कुल औद्योगिक श्रम शक्ति का बहुत छोटा हिस्सा ही काम करता था।बाकी मजदूर गली-मोहल्लों में स्थित छोटी-छोटी वर्कशॉप और घरेलू इकाइयों
में काम करते थे। सस्ते मशीन- निर्मित धागे ने
उन्नीसवीं सदी में कताई उद्योग को तो खत्म कर दिया था लेकिन तमाम समस्याओं के बावजूद बुनकर अपना व्यवसाय किसी तरह चलाते रहे।
बीसवीं सदी में हथकरघों पर बने कपड़े के उत्पादन में लगातार सुधार हुआ इसके पीछे आंशिक रूप से तकनीकी बदलावों का हाथ था। अगर लागत में बहुत
ज्यादा इजाफा न हो और उत्पादन बढ़ सकता हो तो हाथ से काम करने वालों को नयी तकनीक
अपनाने में कोई परेशानी नहीं होती। इसलिए, बीसवीं सदी के
दूसरे दशक तक आते- आते हम एसे बनुकरों को देखते हैं जो फ्लाई शटल वाले करघों का
इस्तेमाल करते थे। इससे कामगारों की उत्पादन क्षमता बढ़ी, उत्पादन
तेज हुआ और श्रम की माँग में कमी आई।
फ्लाई शटल: यह रस्सियों और पुलियों के जरिए चलने वाला एक यांत्रिक औजार है जिसका बुनाई
के लिए इस्तेमाल किया जाता है। यह क्षैतिज धागे को लम्बवत धागे में पिरो देती है।
मिलों के साथ प्रतिस्पर्धा का मुकाबला कर पाने के मामले में कुछ बुनकर औरों
से बेहतर स्थिति में थे। बुनकरों में से कुछ मोटा कपड़ा बनाते थे जबकि कुछ महीन
किस्म के कपड़े बुनते थे। मोटे कपड़े को मुख्य रूप से गरीब ही खरीदते थे और उसकी
माँग में भारी उतार-चढ़ाव आते थे। खराब फसल और अकाल के समय जब ग्रामीण गरीबों के
पास खाने को कुछ नहीं होता था और नकद आय के साधन खत्म हो जाते थे तो वे कपड़ा नहीं
खरीद सकते थे। बेहतर किस्म के कपड़े की माँग खाते-पीते तबके में ज्यादा थी उसमें उतार-चढ़ाव कम आते थे। जब गरीब भूखों मर रहे होते थे तब भी अमीर यह
कपड़ा खरीद सकते थे। अकालों से बनारसी या बालूचरी साड़ियों की बिक्री पर असर नहीं
पड़ता था। बुने हुए बॉर्डर वाली साड़ियों या मद्रास की प्रसिद्ध लुंगियों की जगह ले
लेना मिलों के लिए आसान नहीं था। ऐसा भी नहीं है कि बीसवीं सदी में भी उत्पादन
बढ़ाते जा रहे बुनकरों व अन्य दस्तकारों को हमेशा फायदा ही हो रहा था। उनकी जिंदगी
बहुत कठोर थी। उन्हें दिन-रात काम करना पड़ता था। अक्सर
पूरा परिवार-बच्चे, बूढ़े, औरतें-उत्पादन
के किसी न किसी काम में हाथ बढ़ाता था। लेकिन ये फैक्ट्रियों के युग में अतीत के
अवशेष भर नहीं थे। उनका जीवन और श्रम औद्योगीकरण की
प्रक्रिया का अभिन्न अंग थे।
6 वस्तुओं के लिए बाजार
जब नयी चीजें बनती हैं तो लोगों को उन्हें खरीदने के लिए प्रेरित भी करना
पड़ता है। नए उपभोक्ता पैदा करने का एक तरीका विज्ञापनों का है। विज्ञापन विभिन्न उत्पादों को जरूरी और वांछनीय बना लेते हैं। वे लोगों की
सोच बदल देते हैं और नयी जरूरतें पैदा कर देते हैं। आज अखबारों, पत्रिकाओं, होखडंग्स, दीवारों,
टेलीविजन के परदे पर, सब जगह विज्ञापन छाए हुए
हैं। लेकिन अगर हम इतिहास में पीछे मुड़कर देखें तो पता चलता है कि औद्योगीकरण की
शुरुआत से ही विज्ञापनों ने विभिन्न उत्पादों के बाजार को फैलाने में और एक नयी
उपभोक्ता संस्कृति रचने में अपनी भूमिका निभाई है।
जब मैनचेस्टर के उद्योगपतियों ने भारत में कपड़ा बेचना शुरू किया तो वे कपड़े
के बंडलों पर लेबल लगाते थे लेबल का फायदा यह होता था कि खरीदारों को कम्पनी का
नाम व उत्पादन की जगह पता चल जाती थी। लेबल ही चीजों की गुणवत्ता का प्रतीक भी था।
जब किसी लेबल पर मोटे अक्षरों में ‘मेड इन मैनचेस्टर’
लिखा दिखाई देता तो खरीदारों को कपड़ा खरीदने में किसी तरह का डर
नहीं रहता था।
लेबलों पर सिर्फ शब्द और अक्षर ही नहीं होते थे। उन पर तस्वीरें भी बनी
होती थीं जो अक्सर बहुत सुंदर होती थीं। इन लेबलों पर
भारतीय देवी-देवताओं की तसवीरें प्रायः होती थीं। देवी-देवताओं की तस्वीर के बहाने
निर्माता ये दिखाने की कोशिश करते थे कि ईश्वर भी चाहता है कि लोग उस चीज को
खरीदें। कृष्ण या सरस्वती की तस्वीरों का फायदा ये
होता था कि विदेशों में बनी चीज भी भारतीयों को जानी-पहचानी
सी लगती थी। उन्नीसवीं सदी के आखिर में निर्माता अपने उत्पादों को बेचने के
लिए कैलेंडर छपवाने लगे थे। अखबारों और पत्रिकाओं को तो पढ़े-लिखे लोग ही समझ सकते
थे लेकिन कैलेंडर उनको भी समझ में आ जाते थे जो पढ़ नहीं सकते थे। चाय की दुकानों, दफ्ऱतरों
व मध्यवर्गीय घरों में ये कैलेंडर लटके रहते थे।
जो इन कैलेंडरों को लगाते थे वे विज्ञापन को भी हर रोज, पूरे
साल देखते थे। इन कैलेंडरों में भी नए उत्पादों को बेचने के लिए देवताओं की तस्वीर
होती थी। देवताओं की तस्वीरों की तरह महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों, सम्राटों व नवाबों की तस्वीरें भी विज्ञापनों व कैलेंडरों में खूब
इस्तेमाल होती थीं। इनका संदेश अक्सर यह होता था: अगर आप इस शाही व्यक्ति का
सम्मान करते हैं तो इस उत्पाद का भी सम्मान कीजिए अगर इस उत्पाद को राजा इस्तेमाल
करते हैं या उसे शाही निर्देश से बनाया गया है तो उसकी गुणवत्ता पर सवाल खड़ा नहीं
किया जा सकता।
जब भारतीय निर्माताओं ने विज्ञापन बनाए तो उनमें राष्ट्रवादी संदेश साफ
दिखाई देता था। इनका आजय यह था कि अगर आप राष्ट्र की परवाह करते हैं तो उन चीजों
को खरीदिए जिन्हें भारतीयों ने बनाया है। ये विज्ञापन स्वदेशी के राष्ट्रवादी
संदेश के वाहक बन गए थे।
दुनिया में सबसे पहले औद्योगिकीकरण की शुरुआत कहां हुई?
दुनिया में सबसे पहले औद्योगिकीकरण की शुरुआत ब्रिटेन से हुई।
- औद्योगीकरण के नए युग का पहला प्रतीक क्या था?कपास
प्रथम जूट मिल कहां स्थापित की गयी थी
बंगाल
प्रथम कपास मिल कहाँ स्थापित की गई थी?
मुंबई
- स्पिनिंग जेनी किसके द्वारा तैयार किया गया था?जेम्स हरग्रीव्ज़
- फिनिशिंग सेंटर के रूप में कौन-सा शहर जाना जाता था?लंदन
- कौन से दशक में इग्लैण्ड में कारखाने खुले ?1730 के दशक में
- किस म्यूजिक कंपनी ने सन् 1900 ई. में संगीत की किताब प्रकाशित की?ई.टी. पॉल म्यूजिक कम्पनी
- भूमध्य सागर के पूर्व में स्थित देशों को क्या कहते थे?प्राच्य
- सूती कपड़ा मिल की रूपरेखा किसने तैयार की-रिचर्ड आर्कराइट
- चुन्नटों के सहारे कपड़े को समेटने वाले व्यक्ति को क्या कहते हैं?फुलर
- जे.एन.टाटा ने भारत का पहला लौह इस्पात संयंत्र कहां स्थापित किया?जमशेदपुर।
- इंग्लैंड के सबसे फलते फूलते दो उद्योग कौन-कौन से थे?सूती उद्योग और कपास उद्योग।
- कार्डिंग किसे कहते थेवह प्रक्रिया जिसमें कपास या ऊन आदि रेशों की कताई के लिए तैयार किया जाता है।
- लेबल से क्या तात्पर्य था ?लेबल चीजों को गुणवत्ता का प्रतीक था। इससे खरीददारों को कम्पनी का नाम व उत्पादन की जगह पता चल जाता था।
- गुमाश्ता के दो कार्य लिखिए।(1) बुनकरों पर निगरानी रखना।(2) माल इकट्ठा करना और कपड़ों की गुणवत्ताकी जांच करना।
- गुमाश्ता कौन थे?गुमाश्ता ब्रिटिश सरकार के सरकारी नौकर (बुनकरों के ऊपर सुपरवाइजर) थे जो कपड़ा बुनने वालों पर नजर रखते थे
- स्पिनिंग जेनी मशीन क्या थी ?जेम्स हरग्रीव्ज द्वारा 1764 ई. में बनाई गई कताई की मशीन थी इसके द्वारा एक पहिया घुमाने वाला मजदूर बहुत सी तकलियों को घुमा देता था।
- गिल्डस किसे कहा जाता था?गिल्ड्स उत्पादकों के संगठन होते थे। गिल्ड्स से जुड़े उत्पादक कारीगरों को प्रशिक्षण देते थे, उत्पादकों पर नियंत्रण रखते थे, प्रतिस्पर्द्धा और मूल्य तय करते थे तथा व्यवसाय में नए लोगों को आने से रोकते थे।
- फ्लाई शटल का क्या था?यह रस्सियों और पुलियों के जरिए चलने वाला एक यांत्रिक औजार है जिसका बुनाई के लिए इस्तेमाल किया जाता है। यह क्षैतिज धागे को लम्बवत धागे में पिरो देती है।
‘स्टेपलर’ और ‘फुलर’ कौन थे?
स्टेपलर: जो व्यक्ति ऊन को उसके रेशों के अनुसार बाँधता या छाँटता है, स्टेपलर कहलाता है।
फुलर: ऐसा व्यक्ति जो ‘फुल’ करता है यानी चुन्नटों के सहारे कपड़े को समेटता है।
आद्य औद्योगीकरण’ का क्या अर्थ है?
इंग्लैंड और यूरोप में कारखानों के शुरू होने से पहले ही, एक अंतरराष्ट्रीय बाजार के लिए बड़े पैमाने पर औद्योगिक उत्पादन हुआ था, जो कारखानों पर आधारित नहीं था। औद्योगीकरण के इस चरण को आद्य औद्योगीकरण कहा जाता है।
जॉबर कौन होता था
जॉबर उद्योगपतियों का कोई पुराना और विश्वस्त कर्मचारी होता था। वह अपने गाँव से लोगों को लाता था, उन्हें काम का भरोसा देता था, उन्हें शहर में जमने के लिए मदद देता था और मुसीबत में पैसे से मदद करता था। इन्हें अलग-अलग इलाकों में ‘सरदार’ या ‘मिस्त्री’ आदि भी कहते थे।
- 19 वीं सदी के यूरोप में कुछ उद्योगपति मशीनों की अपेक्षा हाथ से काम करने वाले श्रमिकों को प्राथमिकता क्यों देते थे?(i) नई तकनीक महंगी थी।(ii) मशीनें उतनी अच्छी नहीं थी, जितना उनके आविष्कारों और निर्माताओं का दावा था ।(iii) विक्टोरियाई ब्रिटेन में मानव श्रम की कोई कमी नहीं थी।(iv) उद्योगपतियों को श्रमिकों की कमी या वेतन के मद में भारी लागत जैसी परेशानी नहीं थी।(v) बहुत सारे उद्योग में श्रमिकों की मांग मौसम के आधार पर घटती बढ़ती रहती थी।(vi) बहुत सारे उत्पाद केवल हाथ से तैयार किए जा सकते थे।
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