उन्नीसवीं सदी में दुनिया तेजी से बदलने लगी। अर्थशास्त्रिायों ने अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक विनिमय में तीन तरह के ‘प्रवाहों’ का उल्लेख किया है।
(i) व्यापार का प्रवाह (ii) श्रम का प्रवाह (iii) पूँजी का प्रवाह
1 विश्व अर्थव्यवस्था का उदय
2.तकनीक की भूमिका
3 उन्नीसवीं सदी के आखिर में उपनिवेशवाद
व्यापार बढ़ने और विश्व अर्थव्यवस्था के साथ निकटता के करण दुनिया के बहुत सारे भागों में स्वतंत्रता और आजीविका के साधन छिनने लगे।
1885 में यूरोप के ताकतवर देशों की बर्लिन में एक बैठक हुई जिसमें अफ्रीका के नक्से पर लकीरें खींचकर उसको आपस में बाँट लिया गया था।
उन्नीसवीं सदी के आखिर में ब्रिटेन और फ़्रांस ने अपने शासन वाले विदेशी क्षेत्रफल में भारी वृद्ध कर ली थी। बेल्जियम और जर्मनी नयी औपनिवेशिक ताकतों के रूप में सामने आए।
पहले स्पेन के कब्जे में रह चुके कुछ उपनिवशो पर व़ कब्जा करके 1890 के दशक के आखिरी वर्षों में संयुक्त राज्य अमेरिका भी औपनिवेशिक ताकत बन गया।
प्राचीन काल से ही अफ्रीका में जमीन की कभी कोई कमी नहीं रही जबकि वहाँ की आबादी बहुत कम थी। सदियों तक अफ्रीकियों की जिंदगी व कामकाज जमीन और पालतू पशुओं के सहारे ही चलता रहा है। वहाँ पैसे या वेतन पर काम करने का चलन नहीं था।
उन्नीसवीं सदी के आखिर में यूरोपीय ताकतें अफ्रीका के विशाल भूक्षेत्र और खनिज भंडारों को देखकर इस महाद्वीप की ओर आकर्षित हुई थीं। यूरोपीय लोग अफ्रीका में बागानी खेती करने और खदानों का दोहन करना चाहते थे । लेकिन वहाँ के लोग तनख़्वाह पर काम नहीं करना चाहते थे। मजदूरों की भर्ती और उन्हें अपने पास रोके रखने के लिए मालिकों ने बहुत सारे हथकंडे आजमा कर देख लिए लेकिन बात नहीं बनी। उन पर भारी भरकम कर लाद दिए गए जिनका भुगतान केवल तभी किया जा सकता था जब करदाता बागानों या खदानों में काम करता हो। काश्तकारों को उनकी जमीन से हटाने के लिए उत्तराधिकार कानून भी बदल दिए गए। नए कानून में यह व्यवस्था कर दी गई कि अब परिवार के केवल एक ही सदस्य को पैतृक संपत्ति मिलेगी। इस कानून के जरिए परिवार के बाकी लोगों को श्रम बाजार में धकेलने का प्रयास किया जाने लगा। खानकर्मियों को बाड़ों में बंद कर दिया गया। उनके खुलेआम घूमने-फिरने पर पाबंदी लगा दी गई। तभी अफ्रीका में 1890 के दशक मे रिंडरपेस्ट नामक विनाशकारी पशु रोग फैल गया। मवेशियों में प्लेग की तरह फैलने वाली इस बीमारी से लोगों की आजीविका और स्थानीय अर्थव्यवस्था पर गहरा असर पड़ा। उस समय पूर्वी अफ्रीका में एरिट्रिया पर हमला कर रहे इतालवी सैनिकों का पेट भरने के लिए एशियाई देशों से जानवर लाए जाते थे। यह बीमारी ब्रिटिश अधिपत्य वाले एशियाई देशों से आए उन्हीं जानवरों के जरिए यहाँ पहुँची थी। अफ्रीका के पूर्वी हिस्से से महाद्वीप में दाखिल होने वाली यह बीमारी ‘जंगल की आग’ की तरह पश्चिमी अफ्रीका की तरफ बढ़ने लगी। 1892 में यह अफ्रीका के अटलांटिक तट तक जा पहुँची। पाँच साल बाद यह केप (अफ्रीका का धुर दक्षिणी हिस्सा) तक भी पहुँच गई। रिंडरपेस्ट ने अपने रास्ते में आने वाले 90 प्रतिशत मवेशियों को मौत की नींद सुला दिया। पशुओं के खत्म हो जाने से तो अफ्रिकियों के रोजी-रोटी के साधन ही खत्म हो गए। अपनी सत्ता को और मजबूत करने तथा अफ्रिकियों को श्रम बाजार में धकेलने के लिए वहाँ के बागान मालिकों, खान मालिकों और औपनिवेशिक सरकारों ने बचे-खुचे पशु भी अपने कब्जे में ले लिए। बचे-खुचे पशु संसाधनों पर कब्जे से यूरोपीय उपनिवेशकारों को पूरे अफ्रीका को जीतने व गुलाम बना लेने का बेहतरीन मौका हाथ लग गया था।
4 भारत से अनुबंधित श्रमिकों का जाना : उन्नीसवीं सदी में भारत और चीन के लाखों मजदूरों को बागानों, खदानों और सड़क व रेलवे निर्माण परियोजनाओं में काम करने के लिए दूर-दूर के देशों में ले जाया जाता था। यह तेज आर्थिक वृद्धि के साथ-साथ जनता के कष्टों में वृद्धि, कुछ लोगों की आय में वृद्धि और दूसरों के लिए बेहिसाब गरीबी, कुछ क्षेत्रों में भारी तकनीकी प्रगति और दूसरे क्षेत्रों में उत्पीड़न के नए रूपों की ईजाद की दुनिया थी। भारतीय अनुबंधित श्रमिकों (गिरमिटिया) को खास तरह के अनुबंध या एग्रीमेंट के तहत ले जाया जाता था। इन अनंबुधों में यह शर्त होती थी कि यदि मजदूर अपने मालिक के बागानों में पाँच साल काम कर लेंगे तो वे स्वदेश लौट सकते हैं।
भारत के ज्यादातर अनुबंधित श्रमिक मौजूदा पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य भारत और तमिलनाडु के सूखे इलाकों से जाते थे।
भारतीय अनुबंधित श्रमिकों को कैरीबियाई द्वीप समूह (त्रिनिदाद, गुयाना और सुरीनाम) मॉरिशस व फिजी ले जाया जाता था। मजदूरों की भर्ती का काम मालिकों के एजेंट किया करते थे। नयी जगह की जीवन एवं कार्य स्थितियाँ कठोर थीं इसलिए कुछ मजदूर भाग कर जगंलों में चले गए। बहुतों ने अपनी पुरानी और नयी संस्कृतियों का सम्मिश्रण करते हुए व्यक्तिगत और सामूहिक आत्माभिव्यक्ति के नए रूप खोज लिए।त्रिनिदाद में मुहर्रम के सालाना जुलूस को एक विशाल उत्सवी मेले "होसे" (इमाम हुसैन के नाम पर) का रूप दे दिया गया। उसमें सभी धर्मों व नस्लों के मजदूर हिस्सा लेते थे।
त्रिनिदाद और गुयाना में मशहूर ‘चटनी म्यूज़िक’ भी भारतीय आप्रवासियों के वहाँ पहुँचने के बाद सामने आई रचनात्मक अभिव्यक्ति है।
ज्यादातर अनुबंधित श्रमिक अनुबंध समाप्त हो जाने के बाद भी वापस नहीं लौटे।इसी कारण इन देशों में भारतीय मूल के लोगों की संख्या बहुत ज्यादा पाई जाती है। नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार वी. एस. नायपॉल, वेस्टइंडीज के क्रिकेट खिलाड़ी शिवनरैन चंद्रपॉल और रामनरेश सरवन भारत से गए अनुबंधित मजदूरों के ही वंशज हैं।
बीसवीं सदी के शुरुआती सालों से ही हमारे देश के राष्ट्रवादी नेता इस प्रथा का विरोध करने लगे थे। उनकी राय में यह बहुत अपमानजनक और क्रूर व्यवस्था थी। इसी दबाव के कारण 1921 में इसे खत्म कर दिया गया। लेकिन इसके बाद भी कई दशक तक भारतीय अनुबंधित मजदूरों के वंशज कैरीबियाई द्वीप समूह में बेचैन अल्पसंख्यकों का जीवन जीते रहे। वहाँ के लोग उन्हें ‘कुली’ मानते थे और उनके साथ कुलियों जैसा बर्ताव करते थे।
5 विदेश में भारतीय उद्यमी
विश्व बाजार के लिए खाद्य पदार्थ व फसलें उगाने के वास्ते पूँजी की आवश्यकता थी। बड़े बागानों के लिए तो बाजार और बैंकों से पैसा लिया जा सकता था। लेकिन छोटे-मोटे किसान साहूकार और महाजन से पैसे लेते थे शिकारीपूरी श्रॉफ और नट्टूकोट्टई चेट्टियारों उन बहुत सारे बैंकरों और व्यापारियों में से थे जो मध्य एवं दक्षिण पूर्व एशिया में निर्यातोन्मुखी खेती के लिए कर्जे देते थे।
अफ्रीका में यूरोपीय उपनिवेशकारों के पीछे-पीछे भारतीय व्यापारी और महाजन भी जा पहुँचे। हैदराबादी सिंधी व्यापारी तो यूरोपीय उपनिवेशों से भी आगे तक जा निकले। 1860 के दशक से उन्होंने दुनिया भर के बंदरगाहों पर अपने बड़े-बड़े एम्पोरियम खोल दिए। इन दुकानों में सैलानियों को आकर्षक स्थानीय और विदेशी चीजे मिलती थीं। यह एक फलता-फूलता कारोबार था क्योंकि सुरक्षित और आरामदेह जलपोतों के आ जाने से सैलानियों की संख्या भी दिनोंदिन बढ़ने लगी थी।
6 भारतीय व्यापार, उपनिवेशवाद और वैश्विक
व्यवस्था
भारत में पैदा होने वाली महीन कपास का यूरोपीय देशों को निर्यात किया जाता था। औद्योगीकरण के बाद ब्रिटेन में भी कपास का उत्पादन बढ़ने लगा था। इसी कारण वहाँ के उद्योगपतियों ने सरकार पर दबाव डाला कि वह कपास के आयात पर रोक लगाए और स्थानीय उद्योगों की रक्षा करे। फलस्वरूप, ब्रिटेन में आयातित कपड़ों पर सीमा शुल्क थोप दिए गए। वहाँ महीन भारतीय कपास का आयात कम होने लगा।
उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत से ही ब्रिटिश कपड़ा उत्पादक दूसरे देशों में भी अपने कपड़े के लिए नए-नए बाजार ढूँढ़ने लगे थे। सीमा शुल्क की व्यवस्था के कारण ब्रिटिश बाजारों से बेदखल हो जाने के बाद भारतीय कपड़ों को दूसरे अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में भी भारी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा। निर्मित वस्तुओं का निर्यात घटता जा रहा था और उतनी ही तेजी से कच्चे मालों का निर्यात बढ़ता जा रहा था। कपड़ों की रँगाई के लिए इस्तेमाल होने वाले नील का भी कई दशक तक बड़े पैमाने पर निर्यात होता रहा।
1820 के दशक से ब्रिटेन की सरकार भारत में अफीम की खेती करवाती थी और उसे चीन को निर्यात कर देती थी। अफीम के निर्यात से जो पैसा मिलता था उसके बदले चीन से ही चाय और दूसरे पदार्थों का आयात किया जाता था।
उन्नीसवीं शताब्दी में भारतीय बाजारों में ब्रिटिश औद्योगिक उत्पादों की बाढ़ ही आ गई थी। भारत से ब्रिटेन और शेष विश्व को भेजे जाने वाले खाद्यान्न व कच्चे मालों के नियार्त में इजाफा हुआ ।ब्रिटेन से जो माल भारत भेजा जाता था उसकी कीमत भारत से ब्रिटेन भेजे जाने वाले माल की कीमत से बहुत ज्यादा होती थी। भारत के साथ ब्रिटेन हमेशा ‘व्यापार अधिशेष’ की अवस्था में रहता था। इसका मतलब है कि आपसी व्यापार में हमेशा ब्रिटेन को ही फायदा रहता था। ब्रिटेन इस मुनाफे के सहारे दूसरे देशों के साथ होने वाले व्यापारिक घाटे की भरपाई कर लेता था। बहुपक्षीय बंदोबस्त ऐसे ही काम करता है। इसमें एक देश के मुकाबले दूसरे देश को होने वाले घाटे की भरपाई किसी तीसरे देश के साथ व्यापार में मुनाफा कमा कर की जाती है।
ब्रिटेन के व्यापार से जो अधिशेष हासिल होता था उससे तथाकथित ‘होम चार्जेज’ का निबटारा होता था। इसके तहत ब्रितानी अफसरों और व्यापारियों द्वारा अपने घर में भेजी गई निजी रकम, भारतीय बाहरी कर्जे पर ब्याज आरै भारत में काम कर चुके ब्रितानी अफसरों की पेंशन शामिल थी।
3 महायुद्धों के बीच अर्थव्यवस्था
पहला महायुद्ध मुख्य रूप से यूरोप में ही लड़ा गया। लेकिन उसके असर सारी दुनिया में महसूस किए गए। इस युद्ध ने विश्व अर्थव्यवस्था को एक ऐसे संकट में ढकेल दिया जिससे उबरने में दुनिया को तीन दशक से भी ज्यादा समय लग गया
1 युद्धकालीन रूपांतरण
प्रथम विश्वयुद्ध मित्र राष्ट्र (ब्रिटेन, फ़्रांस,रूस) और केंद्रीय शक्तियों (जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी, ऑटोमन तुर्की) के बीच हुआ यह युद्ध शुरू अगस्त 1914 में हुआ और चार साल से भी ज्यादा समय तक चलता रहा।
मानव सभ्यता के इतिहास में ऐसा भीषण युद्ध पहले कभी नहीं हुआ था। इस युद्ध में दुनिया के सबसे अगुआ औद्योगिक राष्ट्र एक-दूसरे से जूझ रहे थे
यह पहला आधुनिक औद्योगिक युद्ध था। इस युद्ध में मशीनगनों, टैंकों, हवाई जहाजों और रासायनिक हथियारों का भयानक पैमाने पर इस्तेमाल किया गया। युद्ध के लिए दुनिया भर से असंख्य सिपाहियों की भर्ती की जानी थी और उन्हें विशाल जलपोतों व रेलगाड़ियों में भर कर युद्ध के मोर्चों पर ले जाया जाना था।युद्ध में 90 लाख से ज्यादा लोग मारे गए और 2 करोड़ घायल हुए। मृतकों और घायलों में से ज्यादातर कामकाजी उम्र के लोग थे। इस महाविनाश के कारण यूरोप में कामकाज के लायक लोगों की संख्या बहुत कम रह गई। परिवार के सदस्य घट जाने से युद्ध के बाद परिवारों की आय भी गिर गई।
युद्ध संबंधी सामग्री का उत्पादन करने के लिए उद्योगों का पुनर्गठन किया गया। युद्ध की जरूरतों के मद्देनजर पूरे के पूरे समाजों को बदल दिया गया। मर्द मोर्चे पर जाने लगे तो उन कामों को सँभालने के लिए घर की औरतों को बाहर आना पड़ा जिन्हें अब तक केवल मर्दों का ही काम माना जाता था। युद्ध के कारण दुनिया की कुछ सबसे शक्तिशाली आर्थिक ताकतों के बीच आर्थिक संबंध टूट गए। इस युद्ध के लिए ब्रिटेन को अमेरिकी बैंकों और अमेरिकी जनता से भारी कर्जा लेना पड़ा। फलस्वरूप, इस युद्ध ने अमेरिका को कर्जदार की बजाय कर्जदाता बन गया
2 युद्धोत्तर सुधार
युद्ध से पहले ब्रिटेन दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था था। जिस समय ब्रिटेन युद्ध से जूझ रहा था उसी समय भारत और जापान में उद्योग विकसित होने लगे थे। युद्ध के बाद भारतीय बाजार में पहले वाली वर्चस्वशाली स्थिति प्राप्त करना ब्रिटेन के लिए बहुत मुश्किल हो गया था। युद्ध के खर्चे की भरपाई करने के लिए ब्रिटेन ने अमेरिका से जम कर कर्जे लिए थे। इसका परिणाम यह हुआ कि युद्ध खत्म होने तक ब्रिटेन भारी विदेशी कर्जो में दब चुका था।
युद्ध के कारण आर्थिक उछाह का माहौल पैदा हो गया था क्योंकि माँग, उत्पादन और रोजगारों में भारी इजाफा हुआ था। पर जब युद्ध के कारण पैदा हुआ उछाह शांत होने लगा तो उत्पादन गिरने लगा और बेरोजगारी बढ़ने लगी।
दूसरी ओर सरकार ने भारी-भरकम युद्ध संबंधी व्यय में भी कटौती शुरू कर दी ताकि शांतिकालीन करों के सहारे ही उनकी भरपाई की जा सके। इन सारे प्रयासों से रोजगार भारी तादाद में खत्म हुए। 1921 में हर पाँच में से एक ब्रिटिश मजदूर के पास काम नहीं था।
बहुत सारी कृषि आधारित अर्थव्यवस्थाएँ भी संकट में थीं। युद्ध से पहले पूर्वी यूरोप विश्व बाजार में गेहूँ की आपूर्ति करने वाला एक बड़ा केंद्र था। युद्ध के दौरान यह आपूर्ति अस्त-व्यस्त हुई तो कनाडा, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में गेहूँ की पैदावार अचानक बढ़ने लगी। लेकिन जैसे ही युद्ध समाप्त हुआ पूर्वी यूरोप में गेहूँ की पैदावार सुधरने लगी और विश्व बाजारों में गेहूँ की अति के हालात पैदा हो गए। अनाज की कीमतें गिर गईं, ग्रामीण आय कम हो गई और किसान गहरे कर्ज संकट में फँस गए।
3 बड़े पैमाने पर उत्पादन और उपभोग
1920 के दशक में "बृहत उत्पादन का चलन" अमेरिकी अर्थव्यवस्था की एक बड़ी खासियत थी । कार निर्माता हेनरी फोर्ड बृहत उत्पादन के विख्यात प्रणेता थे। उन्होंने शिकागो के एक बूचड़खाने की असेंबली लाइन की तर्ज पर डेट्रॉयट के अपने कार कारखाने में भी आधुनिक असेंबली लाइन स्थापित की थी। शिकागो के बूचड़खाने में मरे हुए जानवरों को एक कन्वेयर बेल्ट पर रख दिया जाता था और उसके दूसरे सिरे पर खड़े मांस विक्रेता अपने हिस्से का मांस उठा कर निकलते जाते थे। यह देख कर फोर्ड को लगा कि गाड़ियों के उत्पादन के लिए भी असेंबली लाइन का तरीका समय और पैसे, दोनों के लिहाज से किफायती
साबित हो सकता है। असेंबली लाइन पर मजदूरों को एक ही काम - जैसे, कार के किसी खास पुर्जे को ही लगाते रहना - मशीनी ढंग से बार-बार करते रहना होता था। यह काम की गति बढ़ाकर प्रत्येक मजदूर की उत्पादकता बढ़ाने वाला तरीका था। कन्वेयर बेल्ट के साथ खड़े होने के बाद कोई मजदूर अपने काम में ढील करने या कुछ पल के लिए भी अवकाश लेने का जोखिम नहीं उठा सकता था। इस व्यवस्था में मजदूर अपने साथियों के साथ बातचीत भी नहीं कर सकते थे। इसका नतीजा यह हुआ की हेनरी फोर्ड के कारखाने की असेंबली लाइन से हर तीन मिनट में एक कार तैयार होकर निकलने लगी।
शुरुआत में फोर्ड फेक्ट्री के मजदूरों को असेंबली लाइनरों पर पैदा होने वाली थकान झेलने में काफी मुश्किल महसूस हुई बहुत सारे मजदू ने काम छोड़ दिया। इस चुनौती से निपटने के लिए फोर्ड ने हताश होकर जनवरी 1914 से वेतन दोगुना यानी 5 डॉलर प्रतिदिन कर दिया। तनख़्वाह बढ़ाने से हेनरी फोर्ड के मुनाफे में जो कमी आई थी उसकी भरपाई करने के लिए वे अपनी असेंबली लाइन की रफ्ऱतार बार-बार बढ़ाने लगे।
उनके मजदूरों पर काम का बोझ लगातार बढ़ता रहता था। अपने इस फैसले से फोर्ड बहुत संतुष्ट थे। कुछ समय बाद उन्होंने कहा था कि ‘लागत कम करने के लिए’ अपनी जिंदगी में उन्होंने इससे अच्छा फैसला कभी
नहीं लिया। फोर्ड द्वारा अपनाई गई उत्पादन पद्धतियों को जल्दी ही पूरे अमेरिका में अपनाया जाने लगा। बृहत उत्पादन पद्धति ने इंजीनियरिंग आधारित चीजों की लागत और कीमत में कमी ला दी। बेहतर वेतन के चलते अब बहुत सारे मजदूर भी कार जैसी टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुएँ खरीद सकते थे। इसके साथ ही बहुत सारे लोग फ्रिज, वॉशिंग मशीन, रेडियो, ग्रामोफोन प्लेयर्स आदि भी खरीदने लगे। ये सब चीजें ‘हायर-परचेज़’ व्यवस्था के तहत खरीदी जाती थीं। यानी लोग ये सारी चीजें कर्जे पर खरीदते थे और उनकी कीमत साप्ताहिक या मासिक किस्तों में चुकाई जाती थी।
1920 के दशक में आवास एवं निर्माण क्षेत्रा में आए उछाल से अमेरिकी संपन्नता का आधार पैदा हो चुका था। मकानों के निर्माण और घरेलू जरूरत की चीजों में निवेश से रोजगार और माँग बढ़ती थी तो दूसरी और उपभोग भी बढ़ता था। बढ़ते उपभोग के लिए और ज्यादा निवेश की जरूरत थी जिससे और नए रोजगार व आमदनी में वृद्धि होने लगती थी। 1923 में अमेरिका शेष विश्व को पूँजी का निर्यात दोबारा करने लगा और वह दुनिया में सबसे बड़ा कर्जदाता देश बन गया। अमेरिका द्वारा आयात और पूँजी निर्यात ने यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं को भी संकट से उबरने में मदद दी।
4 महामंदी
आर्थिक महामंदी की शुरुआत 1929 से हुई और यह संकट तीस के दशक के मध्य तक बना रहा। इस मंदी का सबसे बुरा असर कृषि क्षेत्रों और समुदायों पर पड़ा। क्योंकि औद्योगिक उत्पादों की तुलना में खेतिहर उत्पादों की कीमतों में ज्यादा भारी और ज्यादा समय तक कमी बनी रही।
इस महामंदी के कई कारण थे।
(i) कृषि उत्पादों की कीमतें गिरने से किसानों की आय घटने लगी तो आमदनी बढ़ाने के लिए किसान उत्पादन बढ़ाने का प्रयास करने लगे। फलस्वरूप, बाजार में कृषि उत्पादों की आमद और भी बढ़ गई जिससे कीमतें आरै नीचे चली गइ। खरीददारों के अभाव में कृषि उपज पडी़ -पडी़ सड़ने लगी।
(ii) 1920 के दशक के मध्य में बहुत सारे देशों ने अमेरिका से कर्जे लेकर अपनी निवेश संबंधी जरूरतों को पूरा किया था। जब हालात अच्छे थे तो अमेरिका से कर्जा जुटाना बहुत आसान था लेकिन संकट का संकेत मिलते ही अमेरिकी उद्यमियों के होश उड़ गए। अमेरिका ने कर्जा देना बंद कर दिया। जो देश अमेरिकी कर्जे पर सबसे ज्यादा निर्भर थे उनके सामने गहरा संकट आ खड़ा हुआ।
अमेरिकी पूँजी के लौट जाने से पूरी दुनिया पर असर पड़ा। यूरोप में कई बड़े बैंक धराशायी हो गए। कई देशों की मुद्रा की कीमत बुरी तरह गिर गई।
अमेरिकी सरकार इस महामंदी से अपनी अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए आयातित पदार्थों पर दो गुना सीमा शुल्क वसूल करने लगी। इस फैसले ने तो विश्व व्यापार की कमर ही तोड़ दी।
औद्योगिक देशों में मंदी का सबसे बुरा असर अमेरिका को झेलना पड़ा।
कीमतों में कमी और मंदी की आशंका को देखते हुए अमेरिकी बैंकों ने घरेलू कर्जे देना बंद कर दिया। जो कर्जे दिए जा चुके थे उनकी वसूली तेज कर दी गई।
किसान उपज नहीं बेच पा रहे थे, परिवार तबाह हो गए, कारोबार ठप पड़ गए।
आमदनी में गिरावट आने पर अमेरिका के बहुत सारे परिवार कर्जे चुकाने में नाकामयाब हो गए जिसके चलते उनके मकान, कार और सारी जरूरी चीजें कुर्क कर ली गईं।
बीस के दशक में जो उपभोक्तावादी संपन्नता दिखाई दे रही थी वह धूल के गुबार की तरह रातोंरात काफर हो गई थी।
बेरोजगारी बढ़ी तो लोग काम की तलाश में दूर-दूर तक जाने लगे।
आखिरकार अमेरिकी बैंकिंग व्यवस्था भी धराशायी हो गई।
निवेश से अपेक्षित लाभ न पा सकने, कर्जे वसूल न कर पाने और जमाकर्ताओं की जमा पूँजी न लौटा पाने के कारण हजारों बैंक दिवालिया हो गए और बंद कर दिए गए।
5 भारत और महामंदी
औपनिवेशिक भारत कृषि वस्तुओं का निर्यातक और तैयार मालों का आयातक बन चुका था। 1928 से 1934 के बीच देश के आयात-निर्यात घट कर लगभग आधे रह गए थे। जब अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कीमतें गिरने लगीं तो यहाँ भी कीमतें नीचे आ गईं। 1928 से 1934 के बीच भारत में गेहूँ की कीमत 50 प्रतिशत गिर गई।
शहरी निवासियों के मुकाबले किसानों और काश्तकारों को ज्यादा नुकसान हुआ। यद्यपि कृषि उत्पादों की कीमत तेजी से नीचे गिरी लेकिन सरकार ने लगान वसूली में छूट देने से साफ इनकार कर दिया। सबसे बुरी मार उन काश्तकारों पर पड़ी जो विश्व बाजार के लिए उपज पैदा करते थे। बंगाल के जूट/पटसन उत्पादक कच्चा पटसन उगाते थे जिससे कारखानों में टाट की बोरियाँ बनाई जाती थीं। जब टाट का निर्यात बंद हो गया तो कच्चे पटसन की कीमतों में 60 प्रतिशत से भी ज्यादा गिरावट आ गई। जिन काश्तकारों ने दिन फिरने की उम्मीद में या बेहतर आमदनी के लिए उपज बढ़ाने के वास्ते कर्जे ले लिए थे उनकी हालत भी उपज का सही मोल न मिलने के कारण खराब थी। वे दिनोंदिन और कर्ज में डूबते जा रहे थे। इसी विपत्ति को ध्यान में रखकर बंगाल के एक कवि ने लिखा था पूरे देश में काश्तकार पहले से भी ज्यादा कर्ज में डूब गए। खर्चे पूरे करने के चक्कर में उनकी बचत खत्म हो चुकी थी, जमीन सूदखोरों के पास गिरवी पड़ी थी, घर में जो भी गहने-जेवर थे बिक चुके थे। मंदी के इन्हीं सालों में भारत कीमती धातुओं, खासतौर से सोने का निर्यात करने लगा। प्रसिद्ध अर्थशास्त्रा कीन्स का मानना था कि भारतीय सोने के निर्यात से भी वैश्विक अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने में काफी मदद मिली। 1931 में मंदी अपने चरम पर थी और ग्रामीण भारत असंतोष व उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा था। यह मंदी शहरी भारत के लिए इतनी दुखदाई नहीं रही। कीमतें गिरते जाने के बावजूद शहरों में रहने वाले ऐसे लोगों की हालत ठीक रही जिनकी आय निश्चित थी। जैसे, शहर में रहने वाले जमींदार जिन्हें अपनी जमीन पर बँधा-बँधाया भाड़ा मिलता था, या मध्यवर्गीय वेतनभोगी कर्मचारी।
4 विश्व अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण :
पहला विश्व युद्ध खत्म होने के दो दशक बाद दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो गया। यह युद्ध भी दो बड़े खेमों के बीच था। एक गुट में धुरी शक्तियाँ (नात्सी जर्मनी, जापान और इटली) थीं तो दूसरा खेमा मित्र राष्ट्रों (ब्रिटेन, सोवियत संघ, फ़्रांस और अमेरिका) के नाम से जाना जाता था।
छह साल तक चला यह युद्ध जमीन , हवा और पानी में असंख्य मोर्चों पर लड़ा गया। इस युद्ध में मौत और तबाही की कोई हद बाकी नहीं बची थी। माना जाता है कि इस जंग के कारण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से करीब 6 करोड़ लोग मारे गए। करोड़ों लोग घायल हुए।
अब तक के युद्धों में मोर्चे पर मरने वालों की संख्या ज्यादा होती थी। इस युद्ध में ऐसे लोग ज्यादा मरे जो किसी मोर्चे पर लड़ नहीं रहे थे। यूरोप और एशिया के विशाल भूभाग तबाह हुए। कई शहर हवाई बमबारी या लगातार गोलाबारी के कारण मिट्टी में मिल गए। इस युद्ध ने बेहिसाब आर्थिक और सामाजिक तबाही को जन्म दिया। ऐसे हालात में पुनर्निर्माण का काम कठिन और लंबा साबित होने वाला था।
1 युद्धोत्तर बंदोबस्त और ब्रेटन-वुड्स संस्थान
दो महायुद्धों के बीच मिले आर्थिक अनुभवों से अर्थशास्त्रियों और राजनीतिज्ञों ने दो अहम सबक निकाले। पहला, बृहत उत्पादन पर आधारित किसी औद्योगिक समाज को व्यापक उपभोग के बिना कायम नहीं रखा जा सकता। लेकिन व्यापक उपभोग को बनाए रखने के लिए यह आवश्यक था कि आमदनी काफी ज्यादा और स्थिर हो। स्थिर आय के लिए पूर्ण रोजगार भी जरूरी था। लेकिन बाजार पूर्ण रोजगार की गारंटी नहीं दे सकता। कीमत, उपज और रोजगार में आने वाले उतार-चढ़ावों को नियंत्रित करने के लिए सरकार का दखल जरूरी था। आर्थिक स्थिरता केवल सरकारी हस्तक्षेप के जरिये ही सुनिश्चित की जा सकती थी।
दूसरा सबक बाहरी दुनिया के साथ आर्थिक संबंधों के बारे में था। पूर्ण रोजगार का लक्ष्य केवल तभी हासिल किया जा सकता है जब सरकार के पास वस्तुओं, पूँजी और श्रम की आवाजाही को नियंत्रित करने की ताकत उपलब्ध हो।
युद्धोत्तर अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था ( ब्रेटन वुड्स व्यवस्था) : औद्योगिक विश्व में आर्थिक स्थिरता एवं पूर्ण रोजगार बनाए रखने के लिए युद्धोत्तर अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था लागू की गई ।
जुलाई 1944 में न्यू हैम्पशायर (अमेरिका) के ब्रेटन वुड्स नामक स्थान पर ब्रेटन वुड्स सम्मेलन आयोजित किया गया इसे संयुक्त राष्ट्र मौद्रिक और वित्तीय सम्मेलन के रूप में जाना जाता है।
यह सम्मेलन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अंतरराष्ट्रीय मौद्रिक और वित्तीय व्यवस्था को विनियमित करने के लिए आयोजित किया गया था इस सम्मेलन में सदस्य राष्ट्रों ने विदेश व्यापार में लाभ और घाटे से निपटने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की स्थापना की। साथ ही युद्धोत्तर पुनर्निर्माण के लिए पैसे का इंतजाम करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय पुनर्निर्माण एवं विकास बैंक (विश्व बैंक) का गठन किया गया।
विश्व बैंक और IMF को ब्रेटन वुड्स संस्थान या ब्रेटन वुड्स ट्वीन (ब्रेटन वुड्स की जुड़वाँ संतान) भी कहा जाता है। क्योंकि इन्हें वैश्विक आर्थिक स्थिरता और विकास सुनिश्चित करने के लिए मिलकर काम करने के लिए बनाया गया था।
विश्व बैंक और IMF ने 1947 में औपचारिक रूप से काम करना शुरू किया। इन संस्थानों की निर्णय प्रक्रिया पर पश्चिमी औद्योगिक देशों का नियंत्रण रहता है। अमेरिका विश्व बैंक और IMF के किसी भी
फैसले को वीटो कर सकता है।
अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक व्यवस्था राष्ट्रीय मुद्राओं आरै मौद्रिक व्यवस्थाओं को एक-दूसरे से जोड़ने वाली व्यवस्था है। ब्रेटन वुड्स व्यवस्था निश्चित विनिमय दरों पर आधरित होती थी। इस व्यवस्था में राष्ट्रीय मुद्राएँ, जैसे भारतीय मुद्रा- रुपया-डॉलर के साथ एक निश्चित विनिमय दर से बंधा हुआ था। एक डालॅर के बदले में
कितने रुपये देने होंगे यह स्थिर रहता था। डालॅर का मूल्य सोने से बंधा हुआ था एक डॉलर की कीमत 35 औंस सोने के बराबर निर्धारित की गई थी।
2 प्रारंभिक युद्धोत्तर वर्ष
ब्रेटन वुड्स व्यवस्था ने पश्चिमी औद्योगिक राष्ट्रों और जापान के लिए व्यापार तथा आय में वृद्ध के एक अप्रतिम युग का सूत्रपात किया। 1950 से 1970 के बीच विश्व व्यापार की विकास दर सालाना 8 प्रतिशत से भी ज्यादा रही। इस दौरान वैश्विक आय में लगभग 5 प्रतिशत की दर से वृद्ध हो रही थी। विकास दर भी कमोबेश स्थिर ही थी। उसमें ज्यादा उतार-चढ़ाव नहीं आए। इस दौरान ज्यादातर समय अधिकांश औद्योगिक देशों में बेरोजगारी औसतन 5 प्रतिशत से भी कम ही रही। इन दशकों में तकनीक और उद्यम का विश्वव्यापी प्रसार हुआ। विकासशील देश विकसित औद्योगिक देशों के बराबर पहुँचने की जी तोड़ कोशिश कर रहे थे। इसीलिए उन्होंने आधुनिक तकनीक से चलने वाले संयंत्रों और उपकरणों के आयात पर बेहिसाब पूँजी का निवेश किया।
वीटो : (निषेधाधिकार) इस अधिकार के सहारे एक ही सदस्य की असहमति किसी भी प्रस्ताव को खारिज करने का आधार बन जाती है।
3 अनौपनिवेशीकरण और स्वतंत्रता
दूसरा विश्व युद्ध खत्म होने के बाद भी दुनिया का एक बहुत बड़ा भाग यूरोपीय औपनिवेशिक शासन के अधीन था। अगले दो दशकों में एशिया और अफ्रीका के ज्यादातर उपनिवेश स्वतंत्र, स्वाधीन राष्ट्र बन चुके थे। लेकिन ये सभी देश गरीबी व संसाधनों की कमी से जूझ रहे थे। उनकी अर्थव्यवस्थाएँ और समाज लंबे समय तक चले औपनिवेशिक शासन के कारण अस्त-व्यस्त हो चुके थे।
औद्योगिक देशों की जरूरतों को पूरा करने के लिए IMF और विश्व बैंक का गठन किया गया था।लेकिन ये संस्थान भूतपूर्व उपनिवेशों में गरीबी की समस्या और विकास की कमी से निपटने में दक्ष नहीं थे।
नवस्वाधीन राष्ट्रों के रूप में भी अपनी जनता को गरीबी और पिछड़ेपन की गर्त से बाहर निकालने के लिए उन्हें ऐसे अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों की मदद लेनी पड़ी जिन पर भूतपूर्व औपनिवेशिक शक्तियों का ही वर्चस्व था।अनौपनिवेशीकरण के बहुत साल बीत जाने के बाद भी बहुत सारे नवस्वाधीन राष्ट्रों की अर्थव्यवस्थाओं पर भूतपूर्व औपनिवेशिक शक्तियों का ही नियंत्रण बना हुआ था। जो देश ब्रिटेन और फ़्रांस के उपनिवेश रह चुके थे वहाँ के महत्त्वपूर्ण संसाधनों, जैसे खनिज संपदा और जमीन पर अभी भी ब्रिटिश और फ़्रांसिसी कंपनियों का ही नियंत्रण था और वे इस नियंत्रण को छोड़ने के लिए किसी भी कीमत पर तैयार नहीं थीं। कई बार अमेरिका जैसे शक्तिशाली देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनिया विकासशील देशों के प्राकृतिक संसाधनों का बहुत कम कीमत पर दोहन करने लगती थीं। दूसरी ओर ज्यादातर विकासशील देशों को पचास और साठ के दशक में पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं की तेज प्रगति से कोई लाभ नहीं हुआ। इस समस्या को देखते हुए उन्होंने एक नयी अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक प्रणाली (NIEO) के लिए आवाज उठाई और समूह 77 के रूप में संगठित हो गए ।
4 ब्रेटन वुड्स का समापन और ‘वैश्वीकरण’ की शुरुआत :
सालों की स्थिर और तेज वृद्धि के बावजूद युद्धोत्तर दुनिया में सब कुछ सही नहीं चल रहा था। साठ के दशक से ही विदेशों में अपनी गतिविधियों की भारी लागत ने अमेरिका की वित्तीय और प्रतिस्पर्धी क्षमता को कमजोर कर दिया था। अमेरिकी डॉलर अब दुनिया की प्रधान मुद्रा के रूप में पहले जितना सम्मानित और निर्विवाद नहीं रह गया था। सोने की तुलना में डॉलर की कीमत गिरने लगी थी। अंततः स्थिर विनिमय दर की व्यवस्था विफल हो गई और अस्थिर विनिमय दर की व्यवस्था शुरू की गई।
सत्तर के दशक के मध्य से अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों में भी भारी बदलाव आ चुके थे। अब तक विकासशील देश विमर्श और विकास संबंधी सहायता के लिए अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों की शरण ले सकते थे लेकिन अब उन्हें पश्चिम के व्यावसायिक बैंकों और निजी ऋणदाता संस्थानों से विमर्श न लेने के लिए बाध्य किया जाने लगा। विकासशील विश्व में समय-समय पर विमर्श संकट पैदा होने लगा जिसके कारण आय में गिरावट आती थी और गरीबी बढ़ने लगती थी।
औद्योगिक विश्व भी बेरोजगारी की समस्या में फंसने लगा था। 70 के दशक के मध्य से बेरोजगारी बढने लगी। 70 के दशक के आखिर सालों से बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ एशिया के ऐसे देशों में उत्पादन केंद्रित करने लगीं जहाँ वेतन कम थे। चीन 1949 की क्रांति के बाद विश्व अर्थव्यवस्था से अलग-थलग ही था। परंतु चीन में नयी आर्थिक नीतियों और सोवियत खेमे के बिखराव तथा पूर्वी यूरोप में सोवियत शैली की व्यवस्था समाप्त हो जाने के पश्चात बहुत सारे देश दोबारा विश्व अर्थव्यवस्था का अंग बन गए।
चीन जैसे देशों में वेतन तुलनात्मक रूप से कम थे। फलस्वरूप विश्व बाजारों पर अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए प्रतिस्पर्धा कर रही विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने वहाँ जमकर निवेश करना शुरू कर दिया।
उद्योगों को कम वेतन वाले देशों में ले जाने से वैश्विक व्यापार और पूँजी प्रवाहों पर भी असर पड़ा। पिछले दो दशक में भारत, चीन और ब्राजील आदि देशों की अर्थव्यवस्थाओं में आए भारी बदलावों के कारण दुनिया का आर्थिक भूगोल पूरी तरह बदल चुका है।
विनिमय दर : इस व्यवस्था के जरिये अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की सुविधा के लिए विभिन्न देशों की राष्ट्रीय मुद्राओं को एक-दूसरे से जोड़ा जाता है। मोटे तौर पर विनिमय दर दो प्रकार की होती हैं :
स्थिर विनिमय दर और परिवर्तनशील विनिमय दर।
स्थिर विनिमय दर : जब विनिमय दर स्थिर होती हैं और उनमें आने वाले उतार-चढ़ावों को नियंत्रित करने के लिए सरकारों को हस्तक्षेप करना पड़ता है तो ऐसी विनिमय दर को स्थिर विनिमय दर कहा जाता है।
लचीली या परिवर्तनशील विनिमय दर : इस तरह की विनिमय दर विदेशी मुद्रा बाजार में विभिन्न मुद्राओं की माँग या आपूर्ति के आधार पर और सिद्धांततः सरकारों के हस्तक्षेप के बिना घटती-बढ़ती रहती है।
- अंतर्राष्ट्रीय पुनर्निर्माण एवं विकास बैंक को अन्य किस नाम से जाना जाता है?विश्व बैंक के नाम से
कौन सी बीमारी यूरोप से अमेरिका पहुँची और अमेरिका के मूल निवासियों की सामूहिक मृत्यु के लिए ज़िम्मेदार थी ?
चेचक1885 में यूरोप के ताकतवर देशों ने किस देश के नक्से पर लकीरें खींचकर आपस में बाँट लिया था।
अफ्रीका के
- अमेरिका की खोज किसने की?क्रिस्टोफर कोलंबस।
- विश्वव्यापी आर्थिक मन्दी की शुरुआत हुई-1929 में
ब्रेटन वुड्स नामक प्रसिद्ध स्थान किस देश में है?
अमेरिका
- भारत से विदेशों में ले जाये जाने वाले अनुबन्धित श्रमिक क्या कहलाते थे?गिरमिटिया
- कॉन लॉ किस देश में पारित किया गया था ?ब्रिटेन
- दक्षिणी अमेरिका में एल डोराडो क्या है ?किंवदंतियों की बदौलत सोने का शहर।
- प्रथम विश्व युद्ध के दौरान केन्द्रीय शक्तियों के सदस्य राष्ट्रों के नाम लिखिए।जर्मनी, ऑस्ट्रिया – हंगरी और तुर्की।
- प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ‘सहयोगी राष्ट्र’ कौन थे?प्रथम विश्व युद्ध के दौरान मित्र राष्ट्र ब्रिटेन, फ्रांस और रूस थे।
- द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान धुरी शक्तियाँ के सदस्य राष्ट्रों के नाम लिखिए।नात्सी जर्मनी, जापान और इटली
- द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान मित्र राष्ट्रों के नाम लिखिए।द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान मित्र राष्ट्रों में ब्रिटेन, फ्रांस, सोवियत संघ और अमेरिका शामिल थे।
- 1890 के दशक में किस बीमारी से 90 प्रतिशत मवेशी मारे गए?रिंडरपेस्ट
- रिंडरपेस्ट क्या था ?रिंडरपेस्ट एक घातक पशु रोग था। यह 1890 के दशक में अफ्रीका में फैल गया।
- क्रिस्टोफर कोलंबस द्वारा अमेरिका की खोज के बाद यूरोप और एशिया में कौन से खाद्य पदार्थ पेश किए गए?आलू, सोया, मूंगफली, मक्का, टमाटर, मिर्च, शकरकंद
किस दो यूरोपीय शक्ति गुटों के बीच प्रथम विश्व युद्ध लड़ा गया था?
प्रथम विश्वयुद्ध मित्र राष्ट्र (ब्रिटेन, फ़्रांस,रूस) और केंद्रीय शक्तियों (जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी, ऑटोमन तुर्की) के बीच हुआ
'कॉर्न लॉ' क्या था ?
ब्रिटेन सरकार ने बड़े भू-स्वामियों के दबाव में सरकार ने मक्का के आयात पर पाबंदी लगा दी। जिस कानून के तहत सरकार ने यह पाबंदी लागू की थी उन्हें 'कॉर्न लॉ' कहा जाता था।
- पूर्व-आधुनिक व्यापार में रेशम मार्ग के किन्हीं दो लाभों का उल्लेख करें।(i) रेशम मार्गों ने पूर्व और पश्चिम के बीच व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान की सुविधा प्रदान की।(ii) रेशम मार्ग का इस्तेमाल ईसाई मिशनरियों, मुस्लिम और बौद्ध धर्म प्रचारकों ने किया था। इसलिए इस मार्ग ने अलग-अलग विचारधाराओं को अलग-अलग क्षेत्रों में पहुँचाया।
- 19वीं शताब्दी में विश्व अर्थव्यवस्था में हुए तकनीकी परिवर्तनों का वर्णन करेंऔपनिवेशीकरण के कारण यातायात और परिवहन साधनों में भारी सुधार किए गए। तेज चलने वाली रेलगाड़ियाँ बनीं, बोगियों का भार कम किया गया, जलपोतों का आकार बढ़ा जिससे किसी भी उत्पाद को खेतों से दूर-दूर के बाजारों में कम लागत पर और ज्यादा आसानी से पहुँचाया जा सके।नयी तकनीक के आने पर पानी के जहाजो में रेफ्रीजेरेटर की तकनीक स्थापित कर दी गई जिससे जल्दी खराब होने वाली चीजों को भी लंबी यात्राओं पर ले जाया जा सकता था।अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया या न्यूजीलैंड, सब जगह से जानवरों की बजाय उनका मांस ही यूरोप भेजा जाने लगा।
- 'रेशम मार्ग' के ज़रिए किस तरह के सांस्कृतिक आदान-प्रदान किए गए?रेशम मार्ग का इस्तेमाल ईसाई मिशनरियों, मुस्लिम और बौद्ध धर्म प्रचारकों ने किया था। इसलिए इस मार्ग ने अलग-अलग विचारधाराओं को अलग-अलग क्षेत्रों में पहुँचाया।
गिरमिटिया मजदूरों पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
औपनिवेशिक शासन के दौरान भारतीय श्रमिकों को खास तरह के अनुबंध या एग्रीमेंट के तहत ले जाया जाता था। जिन्हें गिरगिटिया मजदूर कहा जाता था इन अनंबुधों में यह शर्त होती थी कि यदि मजदूर अपने मालिक के बागानों में पाँच साल काम कर लेंगे तो वे स्वदेश लौट सकते हैं।
भारतीय अनुबंधित श्रमिकों को कैरीबियाई द्वीप समूह (त्रिनिदाद, गुयाना और सुरीनाम) मॉरिशस व फिजी ले जाया जाता था। मजदूरों की भर्ती का काम मालिकों के एजेंट किया करते थे। नयी जगह की जीवन एवं कार्य स्थितियाँ कठोर थीं
1929 की महामंदी के महत्वपूर्ण कारणों का वर्णन करें
(i) कृषि उत्पादों की कीमतें गिरने से किसानों की आय घटने लगी तो आमदनी बढ़ाने के लिए किसान उत्पादन बढ़ाने का प्रयास करने लगे। फलस्वरूप, बाजार में कृषि उत्पादों की आमद और भी बढ़ गई जिससे कीमतें आरै नीचे चली गइ। खरीददारों के अभाव में कृषि उपज पडी़-पडी़ सड़ने लगी।(ii) 1920 के दशक के मध्य में बहुत सारे देशों ने अमेरिका से कर्जे लेकर अपनी निवेश संबंधी जरूरतों को पूरा किया था। जब हालात अच्छे थे तो अमेरिका से कर्जा जुटाना बहुत आसान था लेकिन संकट का संकेत मिलते ही अमेरिकी उद्यमियों के होश उड़ गए। अमेरिका ने कर्जा देना बंद कर दिया। जो देश अमेरिकी कर्जे पर सबसे ज्यादा निर्भर थे उनके सामने गहरा संकट आ खड़ा हुआ।- "ब्रेटन वुड्स सम्मेलन" से आपका क्या अभिप्राय है? किसे इसका जुड़वाँ कहा जाता है?ब्रेटन वुड्स सम्मेलन जुलाई 1944 में न्यू हैम्पशायर (अमेरिका) के ब्रेटन वुड्स नामक स्थान पर आयोजित किया गया इसे संयुक्त राष्ट्र मौद्रिक और वित्तीय सम्मेलन के रूप में जाना जाता है।यह सम्मेलन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अंतरराष्ट्रीय मौद्रिक और वित्तीय व्यवस्था को विनियमित करने के लिए आयोजित किया गया था.इस सम्मेलन में सदस्य राष्ट्रों ने विदेश व्यापार में लाभ और घाटे से निपटने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की स्थापना की। साथ ही युद्धोत्तर पुनर्निर्माण के लिए पैसे का इंतजाम करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय पुनर्निर्माण एवं विकास बैंक (विश्व बैंक) का गठन किया गया।विश्व बैंक और IMF को ब्रेटन वुड्स संस्थान या ब्रेटन वुड्स ट्वीन (ब्रेटन वुड्स की जुड़वाँ संतान) भी कहा जाता है। क्योंकि इन्हें वैश्विक आर्थिक स्थिरता और विकास सुनिश्चित करने के लिए मिलकर काम करने के लिए बनाया गया था।
- 'रेशम मार्ग' क्या थे?प्राचीन समय में रेशम मार्गों से चीनी रेशम के कार्गो पश्चिम देशों को भेजा जाता था। रेशम मार्गों ने पूर्व और पश्चिमी देशों के बीच व्यापार और सांस्कृति के आदान-प्रदान को सुगम बनाया।रेशम मार्ग दुनिया के दूर-दराज के हिस्सों के बीच व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंधों का एक जीवंत उदाहरण है।
अमेरिका पर विश्व महामंदी के प्रभावों पर चर्चा करें।
औद्योगिक देशों में मंदी का सबसे बुरा असर अमेरिका को झेलना पड़ा।
अमेरिकी बैंकों ने घरेलू कर्जे देना बंद कर दिया। जो कर्जे दिए जा चुके थे उनकी वसूली तेज कर दी गई।
किसान उपज नहीं बेच पा रहे थे, परिवार तबाह हो गए, कारोबार ठप पड़ गए।
आमदनी में गिरावट आने पर अमेरिका के बहुत सारे परिवार कर्जे चुकाने में नाकामयाब हो गए जिसके चलते उनके मकान, कार और सारी जरूरी चीजें कुर्क कर ली गईं।
बीस के दशक में जो उपभोक्तावादी संपन्नता दिखाई दे रही थी वह धूल के गुबार की तरह रातोंरात काफर हो गई थी।
बेरोजगारी बढ़ी तो लोग काम की तलाश में दूर-दूर तक जाने लगे।
आखिरकार अमेरिकी बैंकिंग व्यवस्था भी धराशायी हो गई।
निवेश से अपेक्षित लाभ न पा सकने, कर्जे वसूल न कर पाने और जमाकर्ताओं की जमा पूँजी न लौटा पाने के कारण हजारों बैंक दिवालिया हो गए और बंद कर दिए गए।
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