प्राकृतिक संसाधन - प्रकृति से प्राप्त हर वस्तु जिसका उपयोग मनुष्य अपनी आवश्यकता पूर्ति के लिए सीधा अर्थात उसमें बिना कोई बदलाव किये करता है प्राकृतिक संसाधन कहलाता है जैसे वन, वन्य जीव, जल और कोयला व पेंट्रोलियम
गंगा का प्रदूषण गंगा अपने उदगम स्थान गंगोत्री से बंगाल की खाड़ी में गंगा सागर तक 2500 किलोमीटर तक की दूरी तय करती है इसके किनारे स्थित उत्तर प्रदेश, बिहार तथा बंगाल के 100 से भी अधिक नगरों ने इसे एक नाले में बदल दिया है। इसका मुख्य कारण इन नगरों द्वारा उत्सर्जित कचरा एवं मल का इसमें प्रवाहित किया जाना है। इसके अतिरिक्त मानव के अन्य क्रियाकलाप हैं नहाना, कपड़े धोना, मृत व्यक्तियों की राख एवं शवों को बहाना। इस कारण गंगा के जल की गुणवत्ता बहुत कम हो गई थी इसलिए 1985 में गंगा सफाई योजना शुरू की गई प्रदूषण संरक्षण और राष्ट्रीय नदी गंगा के कायाकल्प के प्रभावी न्यूनीकरण के दो उद्देश्यों को पूरा करने के लिए जून 2014 केंद्र सरकार द्वारा एक प्रमुख कार्यक्रम नमामि गंगे कार्यक्रम शुरू किया गया स्वच्छ गंगा के लिए राष्ट्रीय मिशन कार्यान्वयन विंग है, जिसे अक्टूबर 2016 में स्थापित किया गया था।
पर्यावरण को बचाने वाले पाँच R
1. Refuse (इनकार) - Refuse का अर्थ है इनकार या मना करना अतः जो वस्तुएं आपको, आपके परिवार और पर्यावरण को नुकसान पहुँचाते हैं। उन्हें खरीदने से इनकार करना। जैसे प्लास्टिक के थैलों को लेने के लिए इनकार करना
2. Reduse कम उपयोग - Reduce का अर्थ है वस्तुओं का कम से कम उपयोग करना। जैसे जब आपको आवश्यकता नहीं तब बिजली के पंखे एवं बल्ब का स्विच बंद कर बिजली बचाना एवं टपकने वाले नल की मरम्मत का जल बचाना
3. Reuse पुनः उपयोग- Reuse का अर्थ है किसी वस्तु को उपयोग के बाद फेंकने के बजाय उसका पुनः उसी रूप में बार-बार उपयोग करना। यह पुनःचक्रण से भी अच्छा तरीका है क्योंकि पुनःचक्रण में कुछ ऊर्जा खर्च होती है। जबकि पुनः उपयोग किसी प्रकार की ऊर्जा खर्च नहीं होती है जैसे लिफाफों को फेंकने के बजाय से उनका पुनः उपयोग किया जा सकता हैं।
4. Repurpose पुनः प्रयोजन: Repurpose का अर्थ है कि जो वस्तु जिस उपयोग के लिए बनी है यदि उसका उपयोग उस कार्य में नहीं किया जा सकता है तो उसे किसी अन्य उपयोगी कार्य में प्रयोग करना जैसे टूटे-पफूटे चीनी मिट्टी के बर्तनों में पौधे उगाना।
5 .Recycle पुनः चक्रण : Recycle का अर्थ है अपशिष्ट पदार्थों में से उपयोगी वस्तुओं या संसाधनों को निकालकर पुनः नये उत्पाद बनाना जैसे प्लास्टिक, कागज, धातु की वस्तुओं आदि का पुनःचक्रण कर इनसे पुनः उपयोगी वस्तुएँ बनाना। इससे जल्द समाप्त होने वाली संसाधनों को बचाया जा सके और पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाया जा सकता है
प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण
प्राकृतिक संसाधनों का योजनाबद्ध, समुचित व विवेकपूर्ण उपयोग ही प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण कहलाता है
वे सारी वस्तुएँ जिनका हम उपयोग करते हैं हमें पृथ्वी पर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों से प्राप्त होती हैं। हमें अपने संसाधनों की सावधानीपूर्वक (विवेकपूर्ण ढंग से) उपयोग की आवश्यकता है क्योंकि
1. प्राकृतिक संसाधन सीमित है
2. जनसंख्या वृद्धि के कारण सभी संसाधनों की माँग तेजी से बढ रही है।
प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन करते समय निम्न बातें ध्यान रखनी चाहिए
(i) प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन करते समय दीर्घकालिक दृष्टिकोण को ध्यान में रखना होगा ताकि ये अगली कई पीढ़ियों तक उपलब्ध हो सकें ।
(ii) प्राकृतिक संसाधनों का वितरण सभी वर्गों में समान रूप से हो, न कि मात्र मुट्ठी भर अमीर और शक्तिशाली लोगों को इनका लाभ मिले।
(iii) जब प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करते हैं तो हम पर्यावरण को क्षति पहुँचाते हैं। अतःसंपोषित प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन में अपशिष्टों के सुरक्षित निपटान की भी व्यवस्था होनी चाहिए।
वन एवं वन्य जीवन
वन ‘जैव विविधता के विशिष्ट स्थल’ हैं। किसी क्षेत्र में पाई जाने वाली विभिन्न स्पीशीज की संख्या जैव विविधता का आधार है। वंशागत जैव विविधता को संरक्षित करने का प्रयास प्राकृतिक संरक्षण के मुख्य उद्देश्यों में से एक है। जैव विविधता के नष्ट होने से पारिस्थितिक स्थायित्व भी नष्ट हो सकता है।
स्टेकहोल्डर (दावेदार)
जब हम वन एवं वन्य जीवों की बात करते हैं तो चार मुख्य दावेदार सामने आते हैं।
(i) वन के अंदर एवं इसके निकट रहने वाले लोग अपनी अनेक आवश्यकताओं के लिए वन पर निर्भर रहते हैं।
(ii) वन विभाग जिनके पास वनों का स्वामित्व है तथा वे वनों से प्राप्त संसाधनों का नियंत्रण करते हैं।
(iii) उद्योगपति जो तेंदु पत्ती का उपयोग बीड़ी बनाने से लेकर कागज मिल तक विभिन्न वन उत्पादों का उपयोग करते हैं,
(iv) वन्य जीवन एवं प्रकृति प्रेमी जो प्रकृति का संरक्षण इसकी आद्य अवस्था में करना चाहते हैं।
हमारे विचार से इनमें से वन उत्पाद प्रबंधन हेतु निर्णय लेने का अधिकार स्थानीय निवासियों को मिलना चाहिए। यह विकेंद्रीकरण की एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें आर्थिक विकास एवं पारिस्थितिक संरक्षण दोनों साथ-साथ चल सकते हैं ।
वनों से स्थानीय लोगों को ईंधन के लिए जलाऊ लकड़ी एवं छाजन प्राप्त होती है। इसके अलावा वन मछली पकड़ने एवं शिकार-स्थल भी होते हैं। विभिन्न व्यक्ति फल, नट्स तथा औषधि एकत्र करने के साथ-साथ अपने पशुओं को वन में चराते हैं अथवा उनका चारा वनों से एकत्र करते हैं। अंग्रेजों के भारत आने से पहले लोग इन्हीं वनों में शताब्दियों से रह रहे थे। यहाँ के मूल निवासियों ने ऐसी विधियों का विकास किया जिससे वनों का संपोषण भी होता रहे। अंग्रेजों ने वनों का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया। अंग्रेजों ने न केवल वनों पर आधिपत्य जमाया वरन् अपने स्वार्थ के लिए उनका निर्ममता से दोहन भी किया। यहाँ के मूलनिवासियों को एक सीमित क्षेत्र में रहने के लिए मजबूर किया गया तथा वन संसाधनों का किसी सीमा तक अत्यधिक दोहन भी प्रारंभ हो गया। स्वतंत्राता के बाद वन विभाग ने अंग्रेजों से वनों का नियंत्राण तो अपने हाथ में ले लिया, परंतु प्रबंधन व्यवहार में स्थानीय लोगों की आवश्यकताओं एवं ज्ञान की उपेक्षा होती रही। अतः वनों के बहुत बड़े क्षेत्र एक ही प्रकार के वृक्षों जैसे कि पाइन (चीड़), टीक अथवा यूक्लिप्टस के वनों में परिवर्तित हो गए। इन वृक्षों को उगाने के लिए सर्वप्रथम सारे क्षेत्र से अन्य सभी पौधों को हटा दिया गया जिससे क्षेत्र की जैवविविधता बड़े स्तर पर नष्ट हो गई। यही नहीं स्थानीय लोगों की विभिन्न आवश्यकताओं जैसे कि पशुओं के लिए चारा, औषधि हेतु वनस्पति, फल एवं नट इत्यादि की आपूर्ति भी नहीं हो सकी। इस प्रकार के रोपण से उद्योगों को लाभ मिला जो वन विभाग के लिए भी राजस्व का मुख्य स्रोत बन गया। उद्योग इन वनों को अपनी फैक्टरी के लिए कच्चे माल का स्रोत मात्र ही मानते हैं।
स्थानीय निवासी परंपरानुसार वनों के संरक्षण का प्रयास कर रहे हैं। उदाहरण के लिए राजस्थान के विश्नोई समुदाय के लिए वन एवं वन्य प्राणि संरक्षण उनके धार्मिक अनुष्ठान का भाग बन गया है। भारत सरकार ने पिछले दिनों जीवसंरक्षण हेतु अमृता देवी विश्नोई राष्ट्रीय पुरस्कार की व्यवस्था की है। यह पुरस्कार अमृता देवी विश्नोई की स्मृति में दिया जाता है जिन्होंने 1731 में राजस्थान के जोधपुर के पास खेजडली गाँव में ‘खेजरी वृक्षों’ को बचाने हेतु 363 लोगों के साथ अपने आपको बलिदान कर दिया था।
वनों के परंपरागत उपयोग के तरीकों के विरुद्ध पूर्वाग्रह का कोई ठोस आधार नहीं है। उदाहरण के लिए विशाल हिमालय राष्ट्रीय उद्यान के सुरक्षित क्षेत्र में एल्पाइन के वन हैं जो भेड़ों के चरागाह थे। घुमंतु चरवाहे प्रत्येक वर्ष ग्रीष्मकाल में अपनी भेडें घाटी से इस क्षेत्र में चराने के लिए ले जाते थे। जिससे इन चरागाहों में से घास भेड़ों द्वारा खा ली जाती थी तथा नई घास पनप जाती थी परंतु इस राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना के बाद इस परंपरा को रोक दिया गया। पहले तो यह घास बहुत लंबी हो जाती है, फिर लंबाई के कारण जमीन पर गिर जाती है जिससे नयी घास की वृद्धि रुक जाती है। अतः वनों के परंपरागत उपयोग के तरीकों को गलत नहीं ठराया जा सकता है
वनों को होने वाली क्षति के लिए केवल स्थानीय निवासियों को ही उत्तरदायी ठहराना ठीक नहीं है। औद्योगिक आवश्यकताओं एवं विकास परियोजनाओं जैसे कि सड़क एवं बाँध निर्माण से वनों का विनाश होता है। संरक्षित क्षेत्रों में पर्यटकों के द्वारा अथवा उनकी सुविधा के लिए की गई व्यवस्था से भी वनों को क्षति होती है अतः वनों की प्राकृतिक छवि में मनुष्य का हस्तक्षेप बहुत अधिक है। हमें इस हस्तक्षेप की प्रकृति एवं सीमा को नियंत्रित करना होगा। वन संसाधनों का उपयोग इस प्रकार करना होगा जो पर्यावरण एवं विकास दोनों के हित में हो।
संपोषित प्रबंधन
प्राकृतिक संसधानों का ऐसा प्रबंधन जिसमें वर्तमान पीढ़ी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग आने वाली पीढ़ियों की आवश्यकताओं की पूर्ति को बिना नुकसान पहुंचाए करती है
वन प्रबंधन में लोगों की भागीदारी का उदाहरण
चिपको आंदोलन”
1970 में हिमालय की ऊँची पर्वत श्रंखला में गढवाल के ‘रेनी’ नामक गाँव में चिपको आंदोलन’ हुआ था। यह विवाद लकड़ी के ठेकेदार एवं स्थानीय लोगों के बीच प्रारंभ हआ गाँव के समीप के वृक्ष काटने का अधिकार ठेकेदार को दे दिया गया था । जब एक दिन ठेकेदार के आदमी वृक्ष काटने के लिए आए जबकि वहाँ के निवासी पुरुष वहाँ नहीं थे। बिना किसी डर के वहाँ की महिलाएँ फौरन वहाँ पहुँच गईं तथा उन्होंने पेड़ों को अपनी बाँहों में भरकर (चिपक कर) ठेकेदार के आदमियों को वृक्ष काटने से रोका। अंतत: ठेकेदार को अपना काम बंद करना पड़ा।
अराबाड़ी सालवन
वन एवं वन्य जंतु स्थानीय लोगों की भागीदारी के बिना वनों का प्रबंधन संभव नहीं है। इसका एक सुंदर उदाहरण अराबारी वन क्षेत्र है मिदनापुर के अराबाड़ी सालवन में वन विभाग के एक अधिकारी ए.के. बनर्जी ने ग्रामीणों के सहयोग से एक योजना प्रारंभ की। तथा ग्रामीणों के सहयोग से बुरी तरह से क्षतिग्रस्त साल के वन के 1272 हेक्टेयर क्षेत्र का संरक्षण किया। इसके बदले में निवासियों को क्षेत्र की देखभाल की जिम्मेदारी के लिए रोजगार मिला साथ ही उन्हें वहाँ से उपज की 25 प्रतिशत के उपयोग का अधिकार भी मिला और बहुत कम मूल्य पर र्ईंधन के लिए लकड़ी और पशुओं को चराने की अनुमति भी दी गई। स्थानीय समुदाय की सहमति एवं सक्रिय भागीदारी से 1983 तक अराबाड़ी का सालवन समृद्ध हो गया
सभी के लिए जल
धरती पर रहने वाले सभी जीवों की मूल आवश्यकता जल है। जल की कमी वाले क्षेत्रों एवं अत्यधिक निर्धनता वाले क्षेत्रों में घनिष्ट संबंध है। भारत में वर्षा जल का महत्वपूर्ण स्रोत है जो मुख्यतः मानसून पर निर्भर करती है। अतः वर्षा की अवधि वर्ष के कुछ महीनों तक ही सीमित रहती है। प्रकृति में वनस्पति आच्छादन कम होने के कारण भूजल स्तर की उपलब्धता में काफी कमी आई है फसलों के लिए जल की अधिक मात्रा की माँग, उद्योगों से प्रवाहित प्रदूषक एवं नगरों के कूड़ा-कचरे ने जल को प्रदूषित कर उसकी उपलब्धता की समस्या को और अधिक जटिल बना दिया है। बाँध, जलाशय एवं नहरों का उपयोग भारत के विभिन्न क्षेत्रों में सिंचाई के लिए प्राचीन समय से किया जाता रहा है। पहले स्थानीय निवासी इनका प्रबंधन कृषि एवं दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए करते थे जिससे जल पूरे वर्ष उपलब्ध रह सके। इस भंडारित जल का नियंत्रण भली प्रकार से किया जाता था तथा जल की उपलब्धता और दशकों एवं सदियों के अनुभव के आधार पर इष्टतम फसल प्रतिरूप अपनाए जाते थे। सिंचाई के इन संसाधनों का प्रबंधन भी स्थानीय लोगों द्वारा किया जाता था।
अंग्रेजों ने भारत आकर अन्य बातों के साथ-साथ इस पद्धति को भी बदल दिया। बड़ी परियोजनाओं जैसे कि विशाल बाँध तथा दूर तक जाने वाली बड़ी-बड़ी नहरों की सर्वप्रथम संकल्पना कर उन्हें क्रियान्वित करने का कार्य भी अंग्रेजों द्वारा ही किया गया जिसे हमारे स्वतंत्र होने पर हमारी सरकार ने भी पूरे जोश के साथ अपनाया। इन विशाल परियोजनाओं से सिंचाई के स्थानीय तरीके उपेक्षित होते गए तथा सरकार धीरे-धीरे इनका प्रबंधन एवं प्रशासन अपने हाथ में लेती चली गई जिससे जल के स्थानीय स्रोतों पर स्थानीय निवासियों का नियंत्राण समाप्त हो गया।
हिमाचल प्रदेश में कुल्ह
हिमाचल प्रदेश में नहर सिंचाई की स्थानीय प्रणाली को ‘कुल्ह’ कहा जाता है। इसका विकास लगभग 400 वर्ष पूर्व हुआ इस प्रणाली में झरनों से बहने वाले जल को मानव-निर्मित छोटी-छोटी नालियों से पहाड़ी पर स्थित निचले गाँवों तक ले जाया जाता है। कृषि के मौसम में जल सर्वप्रथम दूरस्थ गाँव को दिया जाता था फिर उत्तरोतर ऊँचाई पर स्थित गाँव उस जल का उपयोग करते थे। सिंचाई के अतिरिक्त इन कुल्ह से जल का भूमि में अंतःस्रवण भी होता रहता था जो विभिन्न स्थानों पर झरने को भी जल प्रदान करता रहता था। इस प्रणाली में जल का प्रबंधन क्षेत्र के सभी गाँवों की सहमति से किया जाता था। कुल्ह की देख-रेख एवं प्रबंधन के लिए दो अथवा तीन लोग रखे जाते थे जिन्हें गाँव वाले वेतन देते थे। सरकार द्वारा इन कुल्ह के अधिग्रहण के बाद इनमें से अधिकतर निष्क्रिय हो गए तथा जल के वितरण की आपस की भागीदारी की पहले जैसी व्यवस्था समाप्त हो गई।
बाँध
बड़े बाँध में जल संग्रहण पर्याप्त मात्रा में किया जा सकता है जिसका उपयोग केवल सिंचाई के लिए ही नहीं वरन् विद्युत उत्पादन के लिए भी किया जाता है इनसे निकलने वाली नहरें जल की बड़ी मात्रा को दूरस्थ स्थानों तक ले जाती हैं। परंतु जल के खराब प्रबंधन के कारण बड़े बाँधों के बनाने कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है
बड़े बाँध के विरोध में मुख्यतः तीन समस्याओं की चर्चा विशेष रूप से होती है
(i) सामाजिक समस्याएँ- बड़े बाँध बनाने पर बड़ी संख्या में किसान और आदिवासी विस्थापित होते हैं इन्हें इन परियोजनाओं से कोई लाभ नहीं होता है तथा उन्हें अपनी भूमि एवं जंगलों से भी हाथ धोना पड़ता है और इन्हें मुआवजा भी नहीं मिलता है
(ii) आर्थिक समस्याएँ- बड़े बाँध बनाने में जनता का बहुत अधिक धन लगता है और उस अनुपात में लाभ नहीं मिलता है।
(iii) पर्यावरणीय समस्याएँ - बड़े बाँध बनाने में बहुत बड़े स्तर पर वनों का विनाश होता है तथा जैव विविधता की क्षति होती है।
जल संग्रहण
जल संभर प्रबंधन में मिट्टी एवं जल संरक्षण पर जोर दिया जाता है भौम जल के संचयन व पुनर्भरण द्वारा धरातलीय और भौम जल संसाधनों का दक्ष प्रबंधन जल संभर प्रबंधन कहलाता है। इसका प्रमुख उद्देश्य भूमि एवं जल के प्राथमिक स्रोतों का विकास करना है जल संभर प्रबंधन न केवल जल संभर समुदाय का उत्पादन एवं आय बढ़ता है वरन् सूखे एवं बाढ़ को भी शांत करता है तथा निचले बाँध एवं जलाशयों का सेवा काल भी बढ़ाता है। भारत में प्राचीन कालीन जल संरक्षण प्रणालियों द्वारा धरती पर पड़ने वाली प्रत्येक बूँद का संरक्षण किया जा सकता है । जैसे छोटे-छोटे गड्ढे खोदना, झीलों का निर्माण, साधारण जल संभर व्यवस्था की स्थापना, मिट्टी के छोटे बाँध बनाना, रेत तथा चूने के पत्थर के संग्रहक बनाना तथा घर की छतों से जल एकत्रा करना। इससे भूजल स्तर बढ़ जाता है जल संग्रहण भारत में बहुत पुरानी संकल्पना है। राजस्थान में खादिन, बड़े पात्र एवं नाड़ी, महाराष्ट्र के बंधारस एवं ताल, मध्यप्रदेश एवं उत्तर प्रदेशमें बंधिस, बिहार में अहार तथा पाइन, हिमाचल प्रदेश में कुल्ह, जम्मू के काँदी क्षेत्र में तालाब तथा तमिलनाडु में एरिस (Tank) केरल में सुरंगम, कर्नाटक में कट्टा आदि प्राचीन जल संग्रहण संरचनाएं है
डॉ. राजेन्द्र सिंह ने एक पारंपरिक प्रौद्योगिकी द्वारा भारत के सबसे शुष्क क्षेत्र के सूखाग्रस्त गाँवों के हज़ारों ग्रामीणों की ज़िंदगी बदल दी। डॉ. राजेन्द्र सिंह ने राजस्थान में पानी इकट्ठा करने के लिए 8600 जोहेड और अन्य संरचनाओं का निर्माण किया तथा राज्य भर के 1000 गाँवों में पानी वापस लाया गया। डॉ. राजेन्द्र सिंह को ‘वाटर मैन’ के नाम से जाना जाता है 2015 में उन्होंने स्टॉकहोम पुरस्कार जीता। यह पुरस्कार ग्रह और इसके निवासियों की भलाई के लिए जल संसाधनों के सुरक्षित संरक्षण में योगदान करने वाले व्यक्ति का सम्मान करता है।
प्राचीन जल संग्रहण तथा जल परिवहन संरचनाएँ आज भी उपयोग में हैं। जल संग्रहण तकनीक, स्थानीय होती हैं तथा इसका लाभ भी सीमित क्षेत्र को होता है। स्थानीय निवासियों को जल-संरक्षण का नियंत्रण देने से इन संसाधनों के अकुशल प्रबंधन एवं अतिदोहन कम होते हैं अथवा पूर्णतः समाप्त हो सकते हैं। बड़े समतल भूभाग में जल संग्रहण स्थल मुख्यतः अर्धचंद्राकार मिट्टी के गड्ढे अथवा निचले स्थान, वर्षा ऋतु में पूरी तरह भर जाने वाली नालियों या प्राकृतिक जल मार्ग पर बनाए गए ‘चेक डैम’ जो कंक्रीट अथवा छोटे कंकड़ पत्थरों द्वारा बनाए जाते हैं। इन छोटे बाँधों के अवरोध के कारण इनके पीछे मानसून का जल तालाबों में भर जाता है। केवल बड़े जलाशयों में जल पूरे वर्ष रहता है। परंतु छोटे जलाशयों में यह जल 6 महीने या उससे भी कम समय तक रहता है उसके बाद यह सूख जाते हैं। इनका मुख्य उद्देश्य जल संग्रहण नहीं है परंतु जल-भौम स्तर में सुधार करना है।
भौम जल संरक्षण के लाभ
(i) भौम जल वाष्प बन कर उड़ता नहीं है और आस-पास में फैल कर बड़े क्षेत्र में वनस्पति को नमी प्रदान करता है।
(ii) भौम जल संग्रहण से मच्छरों उत्पन्न होने की समस्या नहीं रहती है।
(iii) भौम जल मानव व जंतु अपशिष्टों से संदूषित नहीं होता है।
कोयला एवं पेट्रोलियम
कोयला एवं पेट्रोलियम (जीवाश्म ईंधन) ऊर्जा के प्रमुख स्रोत हैं। पेट्रोलियम एवं कोयला लाखों वर्ष पूर्व जीवों की जैव-मात्रा के अपघटन से प्राप्त होते हैं। अतः इनका अत्यधिक उपयोग करने से ये स्रोत भविष्य में समाप्त हो जाएँगे। यदि वर्तमान दर इन संसाधनों का उपयोग होता रहा तो पेट्रोलियम लगभग 40 वर्ष तथा कोयला 200 वर्ष तक ही उपलब्ध रहेंगे कोयला एवं पेट्रोलियम जैव-मात्रा से बनते हैं जिनमें कार्बन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन एवं सल्फर (गंधक) पाए जाते हैं। जब इन्हें जलाया जाता है तो कार्बन डाइऑक्साइड, जल, नाइट्रोजन के ऑक्साइड तथा सल्फर के ऑक्साइड बनते हैं। जब इन्हें अपर्याप्त वायु में जलाया जाता है तो कार्बन मोनोऑक्साइड बनती है। इनमें से नाइट्रोजन एवं सल्पफर के ऑक्साइड तथा कार्बन मोनोऑक्साइड विषैली गैसें हैं तथा कार्बन डाइऑक्साइड एक ग्रीन हाउस गैस है। कोयला एवं पेट्रोलियम कार्बन के विशाल भंडार हैं, यदि इनकी संपूर्ण मात्रा का कार्बन जलाने पर कार्बनडाइऑक्साइड में परिवर्तित हो गया तो वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा अत्यधिक हो जाएगी जिससे तीव्र वैश्विक ऊष्मण होने की संभावना है। अतः इनसंसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग की आवश्यकता है।
कोयला एवं पेट्रोलियम का उपयोग हमारी मशीनों की दक्षता पर भी निर्भर करता हैं। यातायात के साधनों में मुख्यतः आंतरिक दहन-इंजन का उपयोग होता है। आजकल अनुसंधान इस विषय पर केंद्रित है कि इनमें ईंधन का पूर्ण दहन किस प्रकार सुनिश्चित किया जा सकता है
जीवाश्म ईंधन के प्रयोग को सीमित करने के उपाय
1. निजी वाहन की बजाय सार्वजनिक वाहन का प्रयोग या पैदल अथवा साइकिल से चलाना
2. लिफ्ट की जगह सीढ़ियों का इस्तेमाल करके।
3. अपने घरों में बल्ब की जगह फ्रलोरोसेंट ट्यूब का प्रयोग करना।
4. सर्दी में हीटर की जगह एक अतिरिक्त स्वेटर पहनना
- गंगा सफाई योजना कब प्रारंभ हुई थी?1985
- महाराष्ट्र की प्राचीन जल संग्रहण (water harwesting) संरचनाओं के नाम लिखोबंधारस एवं ताल
- दो जीवाश्म ईधनों के नाम लिखिए ।कोयला और पेट्रोलियम
- किस जीवाणु की उपस्थिति गंगा नदी के जल का संदूषित होना दर्शाता हैं ?मानव की आंत्र में पाये जाने वला कोलीफार्म जीवाणु
- अमृता देवी विश्नोई पुरस्कार किस कार्य के लिए दिया जाता है?जीव संरक्षण हेतु
- विशाल हिमालय राष्ट्रीय उद्यान के सुरक्षित क्षेत्र में किस प्रकार के वन हैंएल्पाइन के वन
- हिमाचल प्रदेश में नहर सिंचाई की पुरानी प्रणाली क्या कहलाती है?कुल्ह
- Reuse (पुनः उपयोग) Recycle (पुनःचक्रण) से अच्छा तरीका है क्यों ?पुनःचक्रण में कुछ ऊर्जा खर्च होती है। जबकि पुनः उपयोग किसी प्रकार की ऊर्जा खर्च नहीं होती है
- बीड़ी बनाने में किस वृक्ष का पत्ता कम में लिया जाता हैतेंदू का पत्ता
- मध्यप्रदेश एवं उत्तर प्रदेश में प्राचीन जल संग्रहण (water harwesting) संरचना को किस नाम से जाना जाता हैबंधिस
- राजस्थान में जल संग्रहण के लिए ‘वाटर मैन’ के नाम से किसे जाना जाता हैडॉ. राजेन्द्र सिंह को
- जैव विविधता के विशिष्ट (Hotspots) स्थल क्या है।वन
- तमिलनाडु में प्राचीन जल संग्रहण (water harwesting) संरचना को किस नाम से जाना जाता हैएरिस में
- राजस्थान की प्राचीन जल संग्रहण (water harwesting) संरचनाओं के नाम लिखोखादिन, बड़े पात्र एवं नाड़ी
- केरल में प्राचीन जल संग्रहण (water harwesting) संरचना को किस नाम से जाना जाता हैसुरंगम
- 2015 में स्टॉकहोम जल पुरस्कार किसे दिया गयाडॉ. राजेन्द्र सिंह को
- बंगाल के अराबाड़ी वन क्षेत्र में किसकी बहुलता पाई जाती हैसाल की
- टिहरी बाँध किस नदी पर बनाया गया है।गंगा नदी पर (उत्तराखंड)
- कर्नाटक में कट्टा किसे कहते हैं ?कर्नाटक में प्राचीन जल संग्रहण संरचना को कट्टा कहते हैं
- प्राकृतिक जल मार्गों पर कंक्रीट या छोटे पत्थरों से बने डैम को क्या कहते हैं।चेक डैम
- गंगोत्री से गंगा सागर तक गंगा की कुल लम्बाई कितनी है ?2500 कि.मी.
- चिपको आंदोलन किस वर्ष में प्रारंभ हुआ?1970
- गंगा नदी का उद्गम स्थल कौन हैगंगोत्री
- चिपको आन्दोलन कहाँ हुआ था ?चिपको आन्दोलन गढ़वाल के “रैनी” नामक गाँव में हुआ था |
- कोयला तथा पेट्रोलियम के दहन से कौन – कौन सी विषैली गैसें निकलती हैं ?नाइट्रोज एवं सल्फर के ऑक्साइड तथा कार्बन मोनो ऑक्साइड विषैली गैसें हैं |
- बड़े समतल भू-भाग में जल-संग्रहण स्थल की परंपरागत पद्धतियां कौन सी है ?अर्धचंद्राकार मिट्टी के गड्ढे अथवा निचले स्थान व ‘चेक डैम’
- वन संरक्षण हेतु सबसे उपयोगी विधि क्या हो सकती है?स्थानीय नागरिकों को वन संरक्षण का प्रबन्धन दिया जाना चाहिए, क्योंकि ये वन का संपोषित तरीके से उपयोग करते हैं।
- स्टॉकहोम पुरस्कार किसे दिया जाता हैस्टॉकहोम पुरस्कार पृथ्वी और इसके निवासियों की भलाई के लिए जल संसाधनों के सुरक्षित संरक्षण में योगदान करने वाले व्यक्ति को दिया जाता है।
- प्राकृतिक संसाधन किसे कहते हैं ?प्रकृति से प्राप्त हर वस्तु जिसका उपयोग मनुष्य अपनी आवश्यकता पूर्ति के लिए सीधा अर्थात उसमें बिना कोई बदलाव किये करता है प्राकृतिक संसाधन कहलाता है
- पर्यावरण को बचाने वाले पाँच R कौनसे है1. Refuse (इनकार) 2. Reduse कम उपयोग3. Reuse पुनः उपयोग 4. Repurpose पुनः प्रयोजन5 .Recycle पुनः चक्रण
- जीवाश्म इंधनों का विवेकपूर्ण ढंग से उपयोग करना क्यों आवश्यक हैं ?जीवाश्म इंधन सीमित एवं अनविकरणीय प्राकृतिक संसाधन हैं अतः इनका अत्यधिक उपयोग करने से ये स्रोत भविष्य में समाप्त हो जाएँगे।जीवाश्म इंधनों के दहन से विषैली गैसें उत्पन्न होती हैं
- किन्हीं चार वन उत्पाद आधारित उद्योगों के नाम लिखिएटिम्बर (इमारती लकड़ी) उद्योगकागज उद्योगलाख उद्योगखेल का समान
- वनों से हमें क्या लाभ है ?वनों से ईंधन के लिए जलाऊ लकड़ी प्राप्त होती है।वन मछली पकड़ने एवं शिकार-स्थल होते हैं।वनों से हमें फल, नट्स तथा औषधि प्राप्त होती है।वनों में हम पशुओं को चराते हैं अथवा उनका चारा वनों से एकत्र करते हैं।
- निम्न राज्यों में प्राचीन जल संग्रहण संरचनाओं के नाम लिखिएराजस्थान ➡खादिन, बड़े पात्र, नाड़ीमहाराष्ट्र ➡बंधारस एवं तालमध्य प्रदेश ➡बंधिसबिहार ➡आहर तथा पाइनजम्मू ➡तालाबतमिलनाडू ➡एरिसउत्तर प्रदेश ➡बंधिस
- बड़े बाँधों के निर्माण में मुख्य समस्याएँ कौन-कौन सी हैं?बड़े बाँध के विरोध में मुख्यतः तीन समस्याओं की चर्चा विशेष रूप से होती है(i) सामाजिक समस्याएँ- बड़े बाँध बनाने पर बड़ी संख्या में किसान और आदिवासी विस्थापित होते हैं इन्हें इन परियोजनाओं से कोई लाभ नहीं होता है तथा उन्हें अपनी भूमि एवं जंगलों से भी हाथ धोना पड़ता है और इन्हें मुआवजा भी नहीं मिलता है(ii) आर्थिक समस्याएँ- बड़े बाँध बनाने में जनता का बहुत अधिक धन लगता है और उस अनुपात में लाभ नहीं मिलता है।(iii) पर्यावरणीय समस्याएँ - बड़े बाँध बनाने में बहुत बड़े स्तर पर वनों का विनाश होता है तथा जैव विविधता की क्षति होती है।